जयदेव (Jayadeva लगभग 1200 ईस्वी) संस्कृत के महाकवि थे। ये लक्ष्मण सेन शासक के दरबारी कवि थे। वैष्णव भक्त और संत के रूप में जयदेव सम्मानित थे। जयदेव 'गीतगोविन्द' और 'रतिमंजरी' के रचयिता थे। श्रीमद्भागवत के बाद राधा-कृष्ण लीला की अद्भुत साहित्यिक रचना उनकी कृति ‘गीत गोविन्द’ को माना गया है। जयदेव संस्कृत कवियों में अंतिम कवि थे।
इनकी सर्वोत्तम गीत रचना 'गीत गोविन्द' के नाम से संस्कृत भाषा में उपलब्ध हुई है। माना जाता है कि दिव्य रस के स्वरूप राधाकृष्ण की रमणलीला का स्तवन कर जयदेव ने आत्मशांति की सिद्धि की। जयदेव के पिता का नाम भोजदेव था, पर जब वे बहुत छोटे थे तभी माता-पिता की मृत्यु हो गई थी। उसके बाद वे पुरी आकर रहने लगे। जयदेव का विवाह पद्मावती नामक कन्या से हुआ था। कहते हैं, कन्या के पिता को स्वप्न में भगवान जगन्नाथ ने इस विवाह का आदेश दिया और उसने पुरी में एक वृक्ष के नीचे अपनी कन्या का हाथ जयदेव को सौंप दिया। कुछ समय बाद जयदेव ने मथुरा-वृन्दावन की यात्रा की। कृष्ण की रासलीला के इस क्षेत्र को देखकर वे भाव-विभोर हो उठे। लौटने पर उन्होंने पुरी में अपने अमर ग्रंथ ‘गीत गोविन्द’ की रचना की। इसमें राधा और कृष्ण के प्रेम की कहानी काव्य के मनोहारी छंदोंमें वर्णित है। इसमें केवल तीन चरित्रों का चित्रण है- राधा, कृष्ण और राधा की एक सखी जो इन दोनों के पास एक-दूसरे का संदेश पहुंचाती है। कवि ने जिस प्रेम का वर्णन किया है, वह सांसारिक नहीं, अलौकिक है। इसलिए मंदिरों में बड़ी श्रद्धा से उन गीतों का गायन करते हैं। ‘भक्तमाल’ के लेखक नाभादास ने ब्रजभाषा में जयदेव की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘कवि जयदेव, कवियों में सम्राट हैं, जबकि अन्य कवि छोटे राज्यों के शासकों के समान हैं। तीनों लोकों में उनके ‘गीत गोविन्द’ की आभा फैल रही है। यह रचना काम-विज्ञान, काव्य, नवरस तथा प्रेम की आनंदमयी कला का भंडार है, जो उनके अष्टपदों का अध्ययन करता है, उसकी बुद्धि की वृद्धि होती है। राधा के प्रेमी कृष्ण उन्हें सुनकर प्रसन्न होते हैं और अवश्य ही उस स्थान पर आते हैं, जहां ये गीत गाए जाते हैं।
इनकी सर्वोत्तम गीत रचना 'गीत गोविन्द' के नाम से संस्कृत भाषा में उपलब्ध हुई है। माना जाता है कि दिव्य रस के स्वरूप राधाकृष्ण की रमणलीला का स्तवन कर जयदेव ने आत्मशांति की सिद्धि की। जयदेव के पिता का नाम भोजदेव था, पर जब वे बहुत छोटे थे तभी माता-पिता की मृत्यु हो गई थी। उसके बाद वे पुरी आकर रहने लगे। जयदेव का विवाह पद्मावती नामक कन्या से हुआ था। कहते हैं, कन्या के पिता को स्वप्न में भगवान जगन्नाथ ने इस विवाह का आदेश दिया और उसने पुरी में एक वृक्ष के नीचे अपनी कन्या का हाथ जयदेव को सौंप दिया। कुछ समय बाद जयदेव ने मथुरा-वृन्दावन की यात्रा की। कृष्ण की रासलीला के इस क्षेत्र को देखकर वे भाव-विभोर हो उठे। लौटने पर उन्होंने पुरी में अपने अमर ग्रंथ ‘गीत गोविन्द’ की रचना की। इसमें राधा और कृष्ण के प्रेम की कहानी काव्य के मनोहारी छंदोंमें वर्णित है। इसमें केवल तीन चरित्रों का चित्रण है- राधा, कृष्ण और राधा की एक सखी जो इन दोनों के पास एक-दूसरे का संदेश पहुंचाती है। कवि ने जिस प्रेम का वर्णन किया है, वह सांसारिक नहीं, अलौकिक है। इसलिए मंदिरों में बड़ी श्रद्धा से उन गीतों का गायन करते हैं। ‘भक्तमाल’ के लेखक नाभादास ने ब्रजभाषा में जयदेव की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘कवि जयदेव, कवियों में सम्राट हैं, जबकि अन्य कवि छोटे राज्यों के शासकों के समान हैं। तीनों लोकों में उनके ‘गीत गोविन्द’ की आभा फैल रही है। यह रचना काम-विज्ञान, काव्य, नवरस तथा प्रेम की आनंदमयी कला का भंडार है, जो उनके अष्टपदों का अध्ययन करता है, उसकी बुद्धि की वृद्धि होती है। राधा के प्रेमी कृष्ण उन्हें सुनकर प्रसन्न होते हैं और अवश्य ही उस स्थान पर आते हैं, जहां ये गीत गाए जाते हैं।
जयदेव का बंगाल के राजदरबार में भी सम्मान था और दरबार के पाँच रत्नों में से एक थे। पर पत्नी की मृत्यु के बाद उन्होंने दरबार त्याग दिया। जयदेव के ‘गीत गोविन्द’ से अनेक कवि, संत और चित्रकार प्रभावित हुए हैं। इस पर आधारित चित्र जम्मू और कांगड़ामें बसोहली शैली के चित्र कहलाते हैं। आधुनिक हिन्दी साहित्य के अग्रदूत भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने ‘गीत गोविन्द’ का हिन्दी पद्यानुवाद किया था। जयदेव जगन्नाथ जी के दर्शन करने पुरी जा रहे थे। उसी यात्रा के दौरान उनहें गीत गोविन्द की रचना की प्रेरणा मिली। कहते हैं- पुरुषोत्तम क्षेत्र पहुंचकर उन्होंने जगन्नाथ का दर्शन किया। एक विरक्त संन्यासी की तरह वृक्ष के नीचे रहकर भगवान का भजन-कीर्तन करने लगे। उनके वैराग्य से प्रेरित होकर, वहां अन्य बड़े संत-महात्माओं का सत्संग होने लगा। फिर एक जगन्नाथ भक्त ने प्रभु की प्रेरणा से अपनी कन्या पद्मावती का विवाह जयदेव से कर दिया। वह गृहस्थ होकर भी संत का जीवन जीते रहे।
जयदेव ने राधाकृष्ण की, शृंगार रस से परिपूर्ण भक्ति का महिमागान एवं प्रचार किया। जयदेव के राधाकृष्ण सर्वत्र एवं पूर्णत: निराकार हैं। वे शाश्वत चैतन्य-सौन्दर्य की साक्षात अभिव्यक्ति हैं। अपनी काव्य रचनाओं में जयदेव ने राधाकृष्ण की व्यक्त, अव्यक्त, प्रकट एवं अप्रकट- सभी तरह की लीलाओं का भव्य वर्णन किया है।
नमामि मधुराधिपते.......
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