संस्कृत भाषा के सुप्रसिद्द कवि - Study Search Point

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संस्कृत भाषा के सुप्रसिद्द कवि

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संस्कृत के कवि अप्पय दीक्षित
अप्पय दीक्षित (1525-1598 ई.) संस्कृत के काव्यशास्त्री, दार्शनिक और व्याख्याकार थे। 'अद्वैतवादी' होते हुए भी 'शैवमत' की ओर इनका विशेष झुकाव था। इन्होंने कई ग्रंथों की रचना की थी, जिनमें 'कुवलयानन्द', 'चित्रमीमांसा' इत्यादि प्रसिद्ध हैं। तमिलनाडु में कांची के समीप एक ग्राम में अप्पय दीक्षित का जन्म हुआ था। इनके पौत्र नीलकंट दीक्षित के अनूसार ये 72 वर्ष तक जीवित रहे थे। 1626 में शैवों और वैष्णवों का झगड़ा निपटाने ये पांड्य देश गए बताए जाते हैं। सुप्रसिद्ध वैयाकरण भट्टोजि दीक्षित इनके शिष्य थे। इनके क़रीब 400 ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। शंकरानुसारी अद्वैत वेदांत का प्रतिपादन करने के अलावा इन्होंने 'ब्रह्मसूत्र' के शैव भाष्य पर भी शिव की 'मणिदीपिका' नामक 'शैव संप्रदायानूसारी' टीका लिखी थी। अप्पय दीक्षित 'अद्वैतवाद' के समर्थक थे, फिर भी 'शैवमत' के प्रति इनका विशेष अनुराग था।

महादण्ड नायक ध्रुवभूति के पुत्र, संधिविग्रहिक महादण्डनायक हरिषेण समुद्रगुप्त के समय में 'सन्धिविग्रहिक कुमारामात्य' एवं 'महादण्डनायक' के पद पर कार्यरत था। हरिषण की शैली के विषय में जानकारी 'प्रयाग स्तम्भ' लेख से मिलती है। हरिषण द्वारा स्तम्भ लेख में प्रयुक्त छन्द कालिदास की शैली की याद दिलाते हैं। हरिषेण का पूरा लेख 'चंपू (गद्यपद्य-मिश्रित) शैली' का एक अनोखा उदाहरण है।

संस्कृत के कवि  श्रीहर्ष

श्रीहर्ष की 12वीं सदी के प्रसिद्ध कवियों में गिनती होती है।वह बनारस एवं कन्नौज के गहड़वाल शासकों, विजयचन्द्र एवं जयचन्द्र की राजसभा को सुशोभित करते थे। उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की, जिनमें ‘नैषधचरित’ महाकाव्य उनकी कीर्ति का स्थायी स्मारक है। 'नैषधचरित' में निषध देश के शासक नल तथा विदर्भ के शासक भीम की कन्या दमयन्ती के प्रणय सम्बन्धों तथा अन्ततोगत्वा उनके विवाह की कथा का काव्यात्मक वर्णन मिलता है। श्रीहर्ष में उच्चकोटि की काव्यात्मक प्रतिभा थी तथा वे अलंकृत शैली के सर्वश्रेष्ठ कवि थे। वे शृंगार के कला पक्ष के कवि थे। श्रीहर्ष महान कवि होने के साथ-साथ बड़े दार्शनिक भी थे। 
श्रीहर्ष, भारवि की परम्परा के कवि थे। उन्होंने अपनी रचना विद्वज्जनों के लिए की, न कि सामान्य मनुष्यों के लिए। इस बात की उन्हें तनिक भी चिन्ता नहीं थी कि सामान्य जन उनकी रचना का अनादर करेंगे। वह स्वयं स्वीकार करते हैं कि उन्होंने अपने काव्य में कई स्थानों पर गूढ़ तत्त्वों का समावेश कर दिया था, जिसे केवल पण्डितजन ही समझ सकते हैं। अत: पण्डितों की दृष्टि में तो उनका काव्य माघ तथा भारवि से भी बढ़कर है| किन्तु आधुनिक विद्वान इसे कृत्रिमता का भण्डार कहते हैं।

संस्कृत के कवि क्षेमेन्द्र
क्षेमेन्द्र कश्मीरी महाकवि थे। वे संस्कृत के विद्वान तथा प्रतिभा संपन्न कवि थे। उनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। क्षेमेन्द्र ने प्रसिद्ध आलोचक तथा तंत्रशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान अभिनवगुप्त से साहित्यशास्त्र का अध्ययन किया था। इनके पुत्र सोमेन्द्र ने पिता की रचना 'बोधिसत्त्वावदानकल्पलता' को एक नया पल्लव जोड़कर पूरा किया था। क्षेमेन्द्र संस्कृत में परिहास कथा के धनी थे। संस्कृत में उनकी जोड़ का दूसरा सिद्धहस्त परिहास कथा लेखक सम्भवत: और कोई नहीं है। क्षेमेन्द्र ने अपने ग्रंथों के रचना काल का उल्लेख किया है, जिससे इनके आविर्भाव के समय का परिचय मिलता है। कश्मीर के नरेश अनंत (1028-1063 ई.) तथा उनके पुत्र और उत्तराधिकारी राजा कलश (1063-1089 ई.) के राज्य काल में क्षेमेन्द्र का जीवन व्यतीत हुआ। क्षेमेन्द्र के ग्रंथ 'समयमातृका' का रचना काल 1050 ई. तथा इनके अंतिम ग्रंथ दशावतारचरित का निर्माण काल इनके ही लेखानुसार 1066 ई. है।  क्षेमेन्द्र के पूर्वपुरूष राज्य के अमात्य पद पर प्रतिष्ठित थे। फलत: इन्होंने अपने देश की राजनीति को बड़े निकट से देखा तथा परखा था। अपने युग के अशांत वातावरण से ये इतने असंतुष्ट और मर्माहत थे कि उसे सुधारने में, उसे पवित्र बनाने में तथा स्वार्थ के स्थान पर परार्थ की भावना दृढ़ करने में इन्होंने अपना जीवन लगा दिया तथा अपनी द्रुतगामिनी लेखनी को इसकी पूर्ति के निमित्त काव्य के नाना अंगों की रचना में लगाया। क्षेमेन्द्र संस्कृत में परिहास कथा के धनी थे। संस्कृत में उनकी जोड़ का दूसरा सिद्ध हस्त परिहास कथा लेखक कोई और नहीं है। उनकी सिद्ध लेखनी पाठकों पर चोट करना जानती थी, परंतु उसकी चोट मीठी होती थी। 
  • 'नर्ममाला'
  • 'देशोपदेश'
इन कृतियों में उस युग का वातावरण अपने पूर्ण वैभव के साथ हमारे सम्मुख प्रस्तुत होता है। क्षेमेन्द्र विदग्धी कवि होने के अतिरिक्त जनसाधारण के भी कवि थे, जिनकी रचना का उद्देश्य विशुद्ध मनोरंजन के साथ-साथ जनता का चरित्र निर्माण करना भी था। 'कलाविलास', 'चतुर्वर्गसंग्रह', 'चारुचर्या', 'समयमातृका' आदि लघु काव्य इस दिशा में इनके सफल उद्योग के समर्थ प्रमाण हैं।

संस्कृत के कवि कुंतक
कुंतक अलंकारशास्त्र के एक मौलिक विचारक विद्वान। ये अभिधावादी आचार्य थे। यद्यपि इनका काल निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हैं, किंतु विभिन्न अलंकार ग्रंथों के अंत:साक्ष्य के आधार पर ऐसा समझा जाता है कि कुंतक दसवीं शती ई. के आसपास हुए होंगे। कुंतक अभिधावादी आचार्य थे, जिनकी दृष्टि में अभिधा शक्ति ही कवि के अभीष्ट अर्थ के द्योतन के लिए सर्वथा समर्थ होती है। परंतु यह अभिधा संकीर्ण आद्या शब्दवृत्ति नहीं है। अभिधा के व्यापक क्षेत्र के भीतर लक्षण और व्यंजना का भी अंतर्भाव पूर्ण रूप से हो जाता है। वाचक शब्द द्योतक तथा व्यंजक उभय प्रकार के शब्दों का उपलक्षण है। दोनों में समान धर्म अर्थ प्रतीतिकारिता है। इसी प्रकार प्रत्येयत्व (ज्ञेयत्व) धर्म के सादृश्य से द्योत्य और व्यंग्य अर्थ भी उपचारदृष्ट्या वाच्य कहे जा सकते हैं। इस प्रकार कुंतक अभिधा की सर्वातिशायिनी सत्ता स्वीकार करने वाले आचार्य थे। कुंतक की एकमात्र रचना 'वक्रोक्तिजीवित' है, जो अधूरी ही उपलब्ध हैं। वक्रोक्ति को वे काव्य का जीवित अंश (जीवन, प्राण) मानते थे। पूरे ग्रंथ में वक्रोक्ति के स्वरूप तथा प्रकार का बड़ा ही प्रौढ़ तथा पांडित्यपूर्ण विवेचन है। 'वक्रोक्ति' का अर्थ है- 'वदैग्ध्यभंगीभणिति' अर्थात 'सर्वसाधारण द्वारा प्रयुक्त वाक्य से विलक्षण कथनप्रकार'।
वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभंगीभणितिरु च्यते। कविकर्म की कुशलता का नाम है- 'वैदग्ध्य' या 'विदग्धता'। 'भंगी' का अर्थ है- 'विच्छित', 'चमत्कार' या 'चारुता'। 'भणिति' से तात्पर्य है- 'कथन प्रकार'। इस प्रकार वक्रोक्ति का अभिप्राय है- "कविकर्म की कुशलता से उत्पन्न होने वाले चमत्कार के ऊपर आश्रित रहने वाला कथन प्रकार"। कुंतक का सर्वाधिक आग्रह कविकौशल या कविव्यापार पर है अर्थात्‌ इनकी दृष्टि में काव्य कवि के प्रतिभाव्यापार का सद्य:प्रसूत फल है।

संस्कृत के कवि विशाखदत्त 
विशाखदत्त गुप्तकाल की विभूति थे। इनके दो नाटक प्रसिद्ध हैं-
  • मुद्राराक्षस तथा
  • देवीचन्द्रगुप्तम्।
मुद्राराक्षस में चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन से सम्बन्धित घटनाओं का उल्लेख मिलता है। देवीचन्द्रगुप्तम् से गुप्तवंशी शासक रामगुप्त के विषय में सूचनाएँ प्राप्त होती है। यह नाटक अपने मूल रूप में नहीं मिलता। इसके कुछ अंश 'नाट्य दर्पण' में प्राप्त होते हैं। विशाखदत्त ऐतिहासिक प्रवृत्ति के लेखक हैं। इनके नाटक वीर रस प्रधान हैं। मुद्राराक्षस में प्रेमकथा, नायिका, विदूषक आदि का अभाव है तथा इस दृष्टि से यह संस्कृत साहित्य में अपना अलग स्थान रखता है। इस ग्रंथ के चरित्र-चिरण में विशेष निपुणता का प्रदर्शन मिलता है। इसकी भाषा प्रभावपूर्ण है।

संस्कृत के कवि शूद्रक 
शूद्रक गुप्तकाल में उत्पन्न हुए थे। उनका प्रसिद्ध नाटक 'मृच्छकटिकम्' है, जिसे सामाजिक नाटकों में प्रमुख स्थान प्राप्त है। इसके दस अंकों में ब्राह्मण 'चारुदत्त' जो समय-चक्र से निर्धन है तथा उज्जयिनी की प्रसिद्ध गणिका 'वसंतसेना' के आर्दश प्रेम की कहानी वर्णित है। पात्रों के चरित्र-चित्रण में शूद्रक को विशेष सफलता मिली है। शूद्रक ने चारुदत्त के माध्यम से भारत के आर्दश नागरिक का चित्रण किया है। मृच्छकटिकम् की शैली सरल तथा वर्णन विस्तृत है। प्राकृत भाषा की सभी शैलियों का प्रयोग इसमें एक साथ मिलता है। प्रथम बार संस्कृत में शूद्रक ने ही राज परिवार को छोड़कर समाज के मध्यम वर्ग के लोगों को अपने नाटक के पात्र बनाये। इसके कथानक तथा वातावरण में स्वाभाविकता है। इस दृष्टि से शूद्रक की नाट्य कला बड़ी प्रशंसनीय है। पाश्चात्य आलोचकों ने इसकी बड़ी सराहना की है तथा मृच्छकटिकम् को सार्वभौम आकर्षण का नाटक बताया है, जिसका सफल मंचन विश्व में कहीं भी किया जा सकता है।

संस्कृत के कवि 'भास'
संस्कृत नाटककारों में 'भास' का नाम उल्लेखनीय है। भास कालिदास के पूर्ववर्ती हैं।m सबसे पहले 1909 ई. में 'गणपति शास्त्री' ने भास के तेरह नाटकों की खोज की थी। अभी तक भास के विषय में जो सामग्री मिलती है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि भास ही लौकिक संस्कृत के प्रथम साहित्यकार थे। भास का आविर्भाव ई. पू. पाँचवी - चौथी शती में हुआ था।
भास की रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
  • प्रतिमा
  • अभिषक
  • पाञ्चराज
  • मध्यम व्यायोम
  • दूतघटोत्कच
  • कर्णभार
  • दूतवाक्य
  • उरुभंग
  • बालचरित
  • दरिद्रचारुदत्त
  • अविमारक
  • प्रतिज्ञायौगन्धरायण
  • स्वप्नवासवदत्ता
भास ने अपने नाटकों के माध्यम से सामाजिक जीवन के विभिन्न अंगों का अच्छा चित्रण प्रस्तुत किया। उनकी शैली सीधी तथा सरल है तथा नाटकों का मंचन आसानी से किया जा सकता है। समस्त पदों अथवा अलंकारों के भार से उनके नाटक बोझिल नहीं होने पाये हैं।

संस्कृत के कवि मम्मटमम्मटाचार्य 
मम्मट, मम्मटाचार्य अथवा आचार्य मम्मट संस्कृत काव्य शास्त्र के सर्वश्रेष्ठ विद्वानों में से एक माने गये हैं। मम्मट अपने शास्त्रग्रंथ काव्यप्रकाश के कारण प्रसिद्ध हुए। कश्मीरी पंडितों की परंपरागत प्रसिद्धि के अनुसार वे नैषधीय चरित के रचयिता कवि श्रीहर्ष के मामा थे। उन दिनों कश्मीर विद्या और साहित्य के केंद्र था तथा सभी प्रमुख आचार्यों की शिक्षा एवं विकास इसी स्थान पर हुआ। मम्मट भोजराज के उत्तरवर्ती माने जाते है। इस प्रकार से उनका काल 10वीं सदी का लगभग उत्तरार्ध है। ऐसा विवरण भी मिलता है कि उनकी शिक्षा-दीक्षा वाराणसी में हुई वे कश्मीरी थे ऐसा उनके नाम से भी पता चलता है लेकिन इसके अतिरिक्त उनके विषय में बहुत कम जानकारी मिलती है।

संस्कृत के कवि राजशेखर
राजशेखर कन्नौज के प्रतिहारवंशीय राजा महेन्द्रपाल (890-908) तथा उसके पुत्र महिपाल (910-940) की राज्यसभा में रहते थे। वे संस्कृत के प्रसिद्ध कवि तथा नाटककार थे। राजशेखर नाटककार कम, कवि अधिक थे। उनके ग्रंथों में काव्यात्मकता अधिक है। वे शब्द कवि हैं। भवभूति के समान राजशेखर के शब्दों में अर्थ की प्रतिध्वनि निकलती है। उन्होंने लोकोक्तियों तथा मुहावरों का खुलकर प्रयोग किया। उनके नाटक रंगमंचके लिए उपयुक्त नहीं हैं अपितु वे पढ़ने में ही विशेष रोचक हैं।
राजशेखर ने पाँच ग्रंथों की रचना की थी। इनमें चार नाटक तथा एक अंलकार शास्त्र का ग्रंथ है। इनका उल्लेख निम्न है -
  • बाल रामायण
  • बाल भारत
  • विद्वशालभञ्जिका
  • कर्पूर मञ्जरी
  • काव्यमीमांसा
संस्कृत के कवि मंखक
मंखक (1100 से 1160 ईसवी लगभग) जन्म प्रवरपुर (कश्मीर में सिंधु और वितस्ता के संगम पर स्थित) आचार्य रुय्यक के शिष्य और संस्कृत के महाकवि। संस्कृत के महाकवि मंखक ने व्याकरण, साहित्य, वैद्यक, ज्योतिष तथा अन्य लक्षण ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त किया था। आचार्य रुय्यक उनके गुरु थे। गुरु के अलंकारसर्वस्व ग्रंथ पर मंखक ने वृत्ति लिखी थी। मंखक के पितामह मन्मथ बड़े शिव भक्त थे। पिता विश्ववर्त भी उसी प्रकार दानी, यशस्वी एवं शिव भक्त थे। वे कश्मीर नरेश सुस्सल के यहाँ राजवैद्य तथा सभाकवि थे। मंखक से बड़े तीन भाई थे शृंगार, भृंग तथा लंक या अलंकार। तीनों महाराज सुस्सल के यहाँ उच्च पद पर प्रतिष्ठित थे।  महाराज सुस्सल के पुत्र जयसिंह ने मंखक को 'प्रजापालन-कार्य-पुरुष' अर्थात धर्माधिकारी बनाया था। जयसिंह का सिंहासनारोहण 1127 ई. में हुआ। मंखक की जन्मतिथि 1100 ई. (1157 विक्रमी संवत्) के आसपास मानी जा सकती है। एक अन्य प्रमाण से भी यही निर्णय निकलता है कि मंखकोश की टीका का, जो स्वयं मंखक की है, उपयोग जैन आचार्य महेंद्र सूरि ने अपने गुरु हेमचंद्र के अनेकार्थ संग्रह (1180 ई.) की अनेकार्थ कैरवकौमुदी नामक स्वरचित टीका में किया है। अत: इस टीका के 20, 25 वर्ष पूर्व अवश्य मंखकोश बन चुका होगा। इस प्रकार मंखक का समय 1100 से 1160 ई. तक माना जा सकता है।
श्रीकंठचरित्‌ 25 सर्गो का ललित महाकाव्य है। श्रीकंठचरित्‌ के अंतिम सर्ग में कवि ने अपना, अपने वंश का तथा अपने समकालिक अन्य विशिष्ट कवियों एवं नरेशों का सुंदर परिचय दिया है। अपने महाकाव्य को उन्होंने अपने बड़े भाई अलंकार की विद्वत्सभा में सुनाया था। उस सभा में उस समय कान्यकुब्जाधिपति गोविंदचंद (1120 ई.) के राजपूत महाकवि सुहल भी उपस्थित थे। महाकाव्य का कथानक अति स्वल्प होते हुए भी कवि ने काव्य संबंधी अन्य विषयों के द्वारा अपनी कल्पना शक्ति से उसका इतना विस्तार कर दिया है। समुद्रबंध आदि दक्षिण के विद्वान टीकाकारों ने मंखक को ही 'अलंकारसर्वस्व' का भी कर्ता माना है। किंतु मखक के ही भतीजे, बड़े भाई शृंगार के पुत्र जयरथ ने, जो 'अलंकारसर्वस्व' के यशस्वी टीकाकार हैं, उसे आचार्य रुय्यक की कृति कहा है।

संस्कृत के कवि  भट्टोजिदीक्षित
भट्टोजिदीक्षित चतुर्मुखी प्रतिभाशाली सुप्रसिद्ध वैयाकरण थे। इनके द्वारा रचित की गई सिद्धान्तकौमुदी, प्रौढ़मनोरमा, शब्दकौस्तुभ आदि कृतियाँ दिगन्तव्यापिनी कीर्तिकौमुदी का विस्तार करने वाली हैं। वेदान्त शास्त्र में ये आचार्य अप्पय दीक्षित के शिष्य थे। इनके व्याकरण के गुरु 'प्रक्रियाप्रकाश' के रचयिता कृष्ण दीक्षित थे। भट्टोजिदीक्षित की प्रतिभा असाधारण थी। इन्होंने वेदान्त के साथ ही धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, उपासना आदि पर भी मर्मस्पर्शी ग्रन्थों की रचना की है। एक बार शास्त्रार्थ के समय उन्होंने पण्डितराज जगन्नाथ को म्लेच्छ कह दिया था। इससे पण्डितराज का इनके प्रति स्थायी वैमनस्य हो गया और उन्होंने 'मनोरमा' का खण्डन करने के लिए 'मनोरमा-कुचमर्दिनी' नामक टीकाग्रन्थ की रचना की। पंडितराज उनके गुरुपुत्र शेष वीरेश्वर दीक्षित के पुत्र थे। भट्टोजिदीक्षित के रचे हुए ग्रन्थों में 'वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी' और 'प्रौढ़मनोरमा' अति प्रसिद्ध हैं। सिद्धान्तकौमुदी पाणिनीय सूत्रों की वृत्ति है और मनोरमा उसकी व्याख्या। तीसरे ग्रन्थ 'शब्दकौस्तुभ' में इन्होंने पातज्जल महाभाष्य के विषयों का युक्तिपूर्वक समर्थन किया है। चौथा ग्रन्थ वैयाकरणभूषण है। इसका प्रतिपाद्य विषय भी शब्दव्यापार है। इनके अतिरिक्त उन्होंने 'तत्त्वकौस्तुभ' और 'वेदान्ततत्त्वविवेक टीकाविवरण' नामक दो वेदान्त ग्रन्थ भी रचे थे। इनमें से केवल तत्त्वकौस्तुभ प्रकाशित हुआ है। इसमें द्वैतवाद का खण्डन किया गया है। कहा जाता है कि शेष कृष्ण दीक्षित से अध्ययन के नाते मानसकार तुलसीदास इनके गुरुभाई थे। भट्टोजि शुष्क वैयाकरण के साथ ही सरस भगवदभक्त भी थे। व्याकरण के सहस्रों उदाहरण इन्होंने राम-कृष्ण के चरित्र से ही निर्मित किये हैं।

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