क्लोरीन के प्रागैतिहासिक काल, - Study Search Point

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क्लोरीन के प्रागैतिहासिक काल,

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क्लोरीन एक गैसीय रासायनिक तत्व है जिसका संकेत  तथा परमाणु संख्या 17 है। क्लोरीन के अब तक 24 समस्थानिक (आइसोटोप) खोजे जा चुके हैं जिनके परमाणु भार 28 से 51 तक पाए गए हैं। इसके दो मुख्य तथा स्थिर समस्थानिक हैं जिनके परमाणु भार 35 (75.78 प्रतिशत) तथा 37 (24.22 प्रतिशत) हैं। इन दोनों का संयुक्त मानक परमाणु भार 35.453 माना गया है।  मानव को क्लोरीन के सर्वप्रमुख यौगिक सोडियम क्लोराइड (साधारण नमक) की जानकारी प्रागैतिहासिक काल से ही रही है। पुरातत्वविदों ने ऐसे साक्ष्य ढूंढ निकाले हैं जिनसे पता चलता है कि सेंधा नमक (रॉक साल्ट) का उपयोग लगभग तीन ह$जार वर्ष ईसा पूर्व और नमकीन समुद्री पानी का उपयोग लगभग छ: हजार वर्ष ईसा पूर्व से होता आ रहा है।  एक तत्व के रूप में क्लोरीन की पहचान काफी विलम्ब से हुई। सन 1630 में बेल्जियम निवासी प्रसिद्व रसायनविद जॉन बैप्टिस्ट फॉन हेलमॉन्ट ने पहली बार क्लोरीन की पहचान एक गैस के रूप में की। 


परन्तु एक तत्व के रूप में क्लोरीन की पहचान सर्वप्रथम सन 1774 में स्वीडन निवासी प्रसिद्व रसायविद कार्ल विल्हेल्म शीले द्वारा की गई। यही कारण है कि क्लोरीन की खोज का श्रेय शीले को ही दिया जाता है। शीले ने अपने द्वारा खोजे गए इस तत्व का नाम रखा था डीफ्लॉजिस्टिकेटेड म्यूरियेटिक एसिड एयर। ऐसा नाम रखे जाने का कारण यह था कि इस गैस (उस काल में गैसों को एयर कहा जाता था) की प्राप्ति का स्रोत हाइड्रोक्लोरिक एसिड (उस $जमाने में म्यूरियेटिक एसिड) था। परन्तु विचित्र बात यह थी कि शीले ने स्वयं इस गैस को तत्व नहीं माना। उन्हें गलतफहमी थी कि यह गैस म्यूरियेटिक एसिड से प्राप्त एक प्रकार का यौगिक था।  खैर शीले ने जो भी सोचा समझा हो, परन्तु वह मैंगनीज ऑक्साइड तथा हाइड्रोक्लोरिक एसिड की क्रिया द्वारा क्लोरीन गैस को अलग करने में सफल हुआ। सन 1785 में फ्रांसीसी रसायनविद क्लॉड बर्थोलेट ने पहली बार कपड़ों का रंग उड़ाने के लिए क्लोरीन का उपयोग किया। आधुनिक विरंजक पदार्थों (ब्लीङ्क्षचग पदार्थों) का विकास बर्थोलेट द्वारा किए गए शोध के आधार पर ही किया गया है। बर्थोलेट ने सन 1789 में पेरिस के निकट जैवेल नामक स्थान पर अपनी प्रयोगशाला में पहली बार सोडियम हाइपो क्लोराइट नामक विरंजक पदार्थ का निर्माण किया था। इसे बनाने के लिए सोडियम कार्बोनेट के जलीय विलयन से क्लोरीन गैस प्रवाहित की गई थी। इसके फलस्वरूप तैयार हुआ द्रव (जिसेजैवेल वॉटर कहा गया) वस्तुत: सोडियम हाइपो क्लोराइड का तनु विलयन था। इस विधि में कार्य कुशलता की कमी थी। अत: वैज्ञानिक लोग वैकल्पिक विधि की तलाश में थे। स्कॉटलैंड निवासी रसायविद तथा उद्योगपति चाल्र्स टिनैंट ने कैल्शियम हाइपो क्लोराइट का विलयन तैयार किया (जिसे क्लोरीनेटेड लाइम कहा जाता है) तथा फिर ठोस कैल्शियम हाइपो क्लोराहट (ब्लीङ्क्षचग पाउडर) तैयार किया। इन यौगिकों से निम्न स्तर का तात्विक क्लोरीन तैयार किया जा सकता था तथा इन्हें सोडियम हाइपो क्लोराइट की तुलना में आसानी से ट्रांसपोर्ट किया जा सकता था।  उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दौर में ई.एस. स्मिथ नामक रसायनविद ने सोडियम हाइपो क्लोराइट के उत्पादन की एक नई विधि का पेटेंट कराया। इस विधि में समुद्री जल (ब्राइन) के विद्युत विच्छेदन द्वारा पहले सोडियम हाइड्रॉक्साइड तथा क्लोरीन गैस तैयार की जाती थी तथा फिर इन दोनों को मिलाकर सोडियम हाइपो क्लोराइट तैयार होता था। इस विधि को क्लोर एल्कली विधि कहा गया जिसे सर्वप्रथम सन 1892 में औद्योगिक स्तर पर उपयोग में लाया गया। सन 1826 में पहली बार सिल्वर क्लोराइड का उपयोग फोटोग्राफिक चित्रों को विकसित करने हेतु किया गया। सन 1847 में पहली बार क्लोरोफॉर्म का उपयोग एनेस्थेसिया (निश्चेतक) के रूप में किया गया। पॉली विनाइल क्लोराइड (पीवीसी) का आविष्कार सन 1912 में हुआ। हालांकि जिस समय इसकी खोज हुई उस समय वैज्ञानिकों को इसका उपयोग मालूम नहीं था परन्तु बाद में यह काफी उपयोगी साबित हुआ। एक अस्त्र के रूप में क्लोरीन गैस का उपयोग सर्वप्रथम 22 अप्रैल 1915 को जर्मन सेना द्वारा प्रथम विश्वयुद्घ के दौरान फ्रांस की सीमा से सटे बेल्जियम के वाईप्रस नामक स्थान पर शत्रु सेना के विरुद्घ किया गया। यह अस्त्र शत्रु सेना के लिए बहुत विनाशकारी साबित हुआ क्योंकि शत्रु सेना के जवानों को गैस मास्क नहीं दिया गया था। वाइप्रस में उस समय भीषण युद्घ चल रहा था तथा जर्मन सेना को इस गैस के प्रयोग के कारण थोड़ी सफलता मिली थी। प्रकृति में क्लोरीन गैस मुक्त रूप से कहीं नहीं मिलती। यह कुछ यौगिकों या खनिजों के रूप में प्राप्त होती है जिनमें प्रमुख है सेंधा नमक (रॉक साल्ट)। दूसरा खनिज है कार्नालाइट तथा सिल्वाइट।

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