पालक के गुण (पालक मूल रुप से पर्शिया (आधुनिक ईरान) की उपज), - Study Search Point

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पालक के गुण (पालक मूल रुप से पर्शिया (आधुनिक ईरान) की उपज),

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पालक लगभग सभी ऋतुओं में उत्पन्न होता है। भारत में यह शाक प्रत्येक स्थान पर सरलता से मिल जाता है। अधिकांश लोग पालक को विभिन्न तरीकों से प्रयोग में लाते रहे हैं और इसकी पत्तियों से अनेक व्यंजन तैयार किए जाते हैं। पालक जैसी सस्ती व सुलभ सब्जी में अनेक गुणों का समावेश है। पालक का उपयोग सब्जियों में सर्वाधिक होता है। दालों में मिलाकर अथवा अन्य सब्जियों के साथ पकाकर या पालक का कच्चा या रस निकालकर प्रयोग किया जाता है। सब्जियों व शाक में खनिज तत्व अधिक मात्रा में विद्यमान रहते हैं, किंतु पालक में प्रकृति ने शरीर को शक्ति व स्फूर्ति प्रदान करने के लिए कुछ विशेष प्रकार के पोषक तत्वों का समावेश किया है। पालक का हरा रंग चित्रकारों और कलमकारी के कारीगरों द्वारा बहुतायत से प्रयोग में लाया जाता है। पालक मूल रुप से पर्शिया (आधुनिक ईरान) की उपज थी। 
चीन में यह सातवी शताब्दी में लाया गया। यूरोप के लोगों ने इसे बारहवी शती में जाना और अमेरिका पहुँचते पहुँचते इसे 1806 का साल लग गया। लेकिन इससे बहुत पहले लिखे गए भारत के आयुर्वेदिक ग्रथों में इसका उल्लेख बताता है कि पालक बहुत समय पहले से भारत में उगाया जाता था और भारतीय औषधि विशेषज्ञ इसके गुणों को जानते थे। ऐसा समझा जाता है कि यह भारत से मध्यपूर्व, वहाँ से चीन, चीने से यूरोप और यूरोप से अमेरिका पहुँचा। चीन में इसे आज भी ईरानी शाक के नाम से जाना जाता है। पालक का वानस्पतिक नाम स्पाइनेसिया आलेरेसिया है। पालक का उपयोग किसी भी प्रकार हानिकारक नहीं है, किंतु शरीर में सूजन, आँतों में घाव व दस्त रोग से पीड़ित रोगियों को इसके अधिक सेवन से जहाँ तक हो सके, बचना चाहिए। इसमें उपस्थित आक्सलेट नामक पदार्थ गुर्दे में पथरी के 
रोगियों के लिये हानिकारक है अतः उन्हें पालक का सेवन नहीं करना चाहिए।
इसमें पाए जाने वाले तत्वों में मुख्य रूप से कैल्शियम, सोडियम, क्लोरीन, फास्फोरस, लोहा, खनिज लवण, प्रोटीन, श्वेतसार, विटामिन 'ए' एवं 'सी'आदि उल्लेखनीय हैं। इन तत्वों में भी लोहा विशेष रूप से पाया जाता है। लौह तत्व मानव शरीर के लिए उपयोगी, महत्वपूर्ण, अनिवार्य होता है। लोहे के कारण ही शरीर के रक्त में स्थित रक्ताणुओं में रोग निरोधक क्षमता तथा रक्त में रक्तिमा (लालपन) आती है। लोहे की कमी के कारण ही रक्त में रक्ताणुओं की कमी होकर प्रायः पाण्डु रोग उत्पन्न हो जाता है। लौह तत्व की कमी से जो रक्ताल्पता अथवा रक्त में स्थित रक्तकणों की न्यूनता होती है, उसका तात्कालिक प्रभाव मुख पर विशेषतः ओष्ठ, नासिका, कपोल, कर्ण एवं नेत्र पर पड़ता है, जिससे मुख की रक्तिमा एवं कांति विलुप्त हो जाती है। कालान्तर में संपूर्ण शरीर भी इस विकृति से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। लोहे की कमी से शक्ति ह्रास, शरीर निस्तेज होना, उत्साहहीनता, स्फूर्ति का अभाव, आलस्य, दुर्बलता, जठराग्नि की मंदता, अरुचि, यकृत आदि परेशानियाँ होती हैं। पालक की शाक वायुकारक, शीतल, कफ बढ़ाने वाली, मल का भेदन करने वाली, गुरु (भारी) विष्टम्भी (मलावरोध करने वाली) मद, श्वास,पित्त, रक्त विकार एवं ज्वर को दूर करने वाली होती है।आयुर्वेद के अनुसार पालक की भाजी सामान्यतः रुचिकर और शीघ्र पचने वाली होती है। इसके बीज मृदु, विरेचक एवं शीतल होते हैं। ये कठिनाई से आने वाली श्वास, यकृत की सूजन और पाण्डु रोग की निवृत्ति हेतु उपयोग में लाए जाते हैं।
 पालक पाचन तंत्र को ठीक कर के भूख बढ़ाने में सहायक होता है। चेहरे से कील मुहाँसों को मिटाने और त्वचा स्वस्थ करने में पालक बेजोड़ है। पालक व गाजर के रस में दो-चार बूँद नीबू के रस को पीने से चेहरा सुंदर, कांतिमय होता है। नकसीर में पालक व अनार का सेवन फायदेमंद रहता है। आंतों में पाए जाने वाले विभिन्न पेरासाइट्स, छोटे-मोटे कृमि आदि को बाहर निकालने के लिए पालक व अजवाइन चूर्ण लाभकारी है। त्वचा पर फोड़े व फुन्सी हो जाने पर उन्हें, पालक के पत्तों को पानी में उबालकर धोने से शीघ्र ठीक हो जाते हैं। पालक व नीबू के रस की दो या तीन बूँदों में ग्लिसरीन मिलाकर त्वचा पर सोते समय लगाने से झुर्रियाँ व त्वचा की खुश्की दूर होती है। ऐसे रतौंधी रोगी, जिन्हें हल्के प्रकाश में स्पष्ट दिखाई नहीं देता हो, उन्हें गाजर व टमाटर के रस में बराबर मात्रा में पालक का जूस देने से चमत्कारी परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं। गर्मी का नजला, सीने और फेफड़े की जलन में भी यह लाभप्रद है। यह पित्त की तेजी को शांत करती है, गर्मी की वजह से होने वाले पीलिया और खाँसी में यह बहुत लाभदायक है।

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