नगरीय समाज की स्वास्थ्य समस्याएं, - Study Search Point

निरंतर कर्म और प्रयास ही सफलता की कुंजी हैं।

नगरीय समाज की स्वास्थ्य समस्याएं,

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मानव जीवन की तीन मूलभूत  आवश्यकताएं हैं – भोजन, वस्त्र और आवास। पौष्टिक भोजन, स्वच्छ वस्त्र तथा साफ-सुथरा आवास मानव की कार्यक्षमता एवं जीवन को सुचारू रूप से सक्रिय रखने के लिए न्यूनतम एवं वांछनीय आवश्यकताएं हैं ।वर्त्तमान युग में मशीनीकरण का युग है। औधोगिकीकरण के जिनते भी आयाम है, सब मशीन पर निर्भर हैं, लेकिन इन मशीनों की कार्यक्षमता को बनाये रखने अथवा अनुकूल दशाओं के विकास के लिए श्रमिकों का संतुलित एवं पौष्टिक आहार शरीर ढूंढनें को पर्याप्त मात्रा वस्त्र और प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षित रखने के लिए स्वास्थ्यकर आवास की उपलब्धि नितान्त आवशयक है। लेकिन औद्योगिकप्रगति के बाद आज श्रमिकों के आवास की व्यवस्था अच्छी नहीं है। उन्हें गंदी बस्तियों में ही रहना पडत है। इसी कारण हाउस ने नगर को “जीवन और समस्याओं का विशिष्ट केंद्र” माना है। जहाँ तक भारत जैसे विकासशील देश का प्रश्न है, गंदी बस्ती की समस्या यहां अत्यधिक गंभीर है ।लोगों को बुरी आर्थिक दशा के कारण यह बढ़ती हुई जनसंख्या, उन्नत तकनीकी और धीमी प्रगति से होने वाले औधोगिकीकरण का ही परिणाम है। भारत में गंदी बस्ती का उदय कब हुआ, इसका निश्चित समय नहीं बतलाया जा सकता है। लेकिन जैसे-जैसे समय बिताता जा रहा है नई-नई गंदी बस्तीयों का विस्तार हो रहा है। इस प्रकार गन्दी बस्तियाँ प्राय: सभी बड़े नगरों में विकसित हुई है । दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ गन्दी बस्ती की समस्या का निराकरण कर दिया गया हो। यधपि संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस आर्थिक और तकनीकी रूप में उन्नत देश हैं, फिर ही सस्ते और स्वस्थ आवास व्यवस्था की समस्या विभिन्न उपायों को अपनाकर भी नहीं सुलझाया जा सका है, 19वीं एवं 20 वीं शताब्दी में विज्ञान, उद्धोग और शिक्षा में अत्यधिक वृधि हुई। चिकित्सा विज्ञान ने व्यक्ति को दीर्घायु बनाया है। पिछले 100 वर्षों में संसार की जनसंख्या दुगुनी हो गयी है। भारत में जनसंख्या में भी तीव्र गति से वृधि हुई है ।पिछले 10 वर्षों की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 1981 में 84.4 करोड़ हो गई ।यह वृधि 23 प्रतिशत की दर से हैं ।ग्रामीण जनसंख्या में निरन्तर वृधि होती जा रही है किन्तु अत्यधिक निर्धनता के कारण ग्रामीण निवासी बहुत बड़ी तादाद में नगरों में काम की तलाश में आ रहे हैं । इससे नगरों में आवास की समस्या उत्पन्न हुई है। औद्योगिकनगरों में जनसंख्या का दबाव अत्यधिक बढ़ गया है  मलिन एवं गंदी बस्तियाँ मूलतः औद्योगिकनगरों एवं महानगरों की उपज है । नगरीकरण और औधोगिकीकरण ने जहां व्यक्तियों को विज्ञान, तकनीकी ज्ञान, शिक्षा और एक अच्छी वैज्ञानिक समझ दी है वहीं करोड़ों व्यक्तियों को नारकीय जीवन व्यतीत करने के लिए विवश किया है ।इस नारकीय जीवन को गंदी बस्तियों में देखा जा सकता है। एक छोटी-सी झोपड़ी, कच्चे मकान अथवा एक कोठरी में 10 से 15 व्यक्ति तक रहते हैं ।जल निकासी का कोई प्रबंध नहीं होता ।कूड़े, कचरे का यहां ढेर लगा रहता है। शौच की कोई व्यवस्था नहीं होती। बैठने के लिए इनके पास खुला स्थान नहीं है ।तंग संकरी मलिन बस्तियाँ जहां जीवन कम और बीमारियां अधिक हैं, पीले, मुर्झाये चेहरे, चिपके गाल , उभरती हड्डियाँ, फाटे गंदे कपड़े यहां का सौंदर्य है ।इन्हें पात नहीं ये कब जवान होते हैं और कब बूढ़े हो जाते हैं ।कब इन्हें टी.बी. हो जाती है और कब कैंसर। ये तो मौत के मुहं में जन्म लेते हैं ।इनका जिंदा रहना और मरना समाज के लिए कोई अर्थ नहीं रखता। आखिर गरीब के मरने कोई अर्थ नहीं होता है ।गंदी बस्तियों में इनका जीवन नाली के कीड़ों जैसा ही है। इस तरह गंदी बस्तियों का सीधा संबंध बढ़ती हुई जनसंख्या और आवास व्यवस्था की कमी से है जो समय के साथ और गहरी होती जा रही है । एक स्थान पर बस्तियों की उत्पत्ती के लिए कोई निश्चित पर्यावरण निर्धारित करना कठिन है। यह कभी भी विकसित हो सकती है। फिलिपाइन्स के दलदली क्षेत्रों में, छोटे-छोटे पहाड़ी क्षेत्रों में और युद्ध में जी स्थान नष्ट हो गए थे वहां गंदी बस्तियां स्थापित हो गई है। लैटिन अमेरिका में छोटे-छोटे पहाड़ों की ढ़लान पर गंदी बस्तियाँ हैं । करांची में कब्रिस्तान और सड़क के किनारे इन्हें देखा जा सकता है । भारत में भी इसे इस रूप में देखा जा सकता है । रवालपिंडी और दक्षिणी स्पेन में प्राचीन गुफाओं में इनके दर्शन किए जा सकते हैं। अहमदाबाद, कानपुर, कलकत्ता, बम्बई, मद्रास कें एक कमरे की अंधेरी कोठिरियों का गंदी बस्तियों में संख्या अत्यधिक है ।गिस्ट और हलबर्ट ‘गंदी बस्तियों को विशिष्ट क्षेत्रों का विशिष्ट स्वरूप बताते हैं, तथा क्वीन एवं थामस ‘गंदी बस्तियों को और रोगग्रस्त क्षेत्रों में पर्यायवार्ची समझते हैं। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि गंदी बस्तीयों के स्वरुप में विविधताएँ हैं । प्रत्येक देश की गंदी बस्ती का अपना स्वरुप है किन्तु उसका पर्यावरण और रहने की दशाएं लगभग समान हैं । इसमें निवास करने वाले निर्धन, बेरोजगार और काम आय वाले व्यक्ति हैं जिनका न कोई मकान है और न मकान होने की आशा है। यह वह आवासीय अनाथालय है जहां जमीन की समस्त असुविधाएं एक साथ देखने को मिलती हैं, जहां व्यक्ति नहीं, व्यक्ति के नाम पर वे पशु की तरह जीवनयापन करते हैं। गंदी बस्तियाँ बहुत कुछ इस औद्योगिकक्रांति का परिणाम हैं ।
गंदी बस्तियों के कारण – गंदी बस्तियों का जन्म अचानक ही नहीं हो गया है वरन इसकी पृष्ठभूमि में अनेक मौलिक तत्व हैं जो इनकी वृधि के कारण बने हैं । यह निम्नलिखित हैं :
निर्धनता : निर्धनता अभिशाप है ।निर्धन व्यक्ति के लिएय यह भू-लोक ही नरक है ।निर्धन, बेरोजगार, दैनिक वेतनभोगी श्रमिक ये सब उस वर्ग के व्यक्ति हैं जो कठोर परिश्रम करने के पश्चात भी दो समय का भोजन अपने परिवार को नहीं दे पातें हैं ।परिणामत: इनके बच्चे कुपोषण का शिकार बन जाते हैं ।बढ़ती महंगाई, कम आमदनी , निर्धन को उच्च पौष्टिक मूल्यों वाले भोज्य पदार्थों को खरीदने के योग्य नहीं छोड़ती है ।अभावों में जीना इनकी मजबूरी है ।
नगरों में आवास समस्या – नगरों में भूमि समिति है और मांग अत्यधिक है ।भूमि का मूल्य भी यहां आकाश छूता है ।सामान्य व्यक्ति भूमि क्रय करके नगर में मकान नहीं बना सकता है ।नगर में किराये के मकान भी समान्य व्यक्ति नहीं ले सकता है ।लाखों श्रमिकों जिसके साधन और आय सीमित हैं उसे विवश होकर गंदी बस्तियों में रहना पड़ता है ।मकान कम है और रहने वाले व्यक्ति कहीं अधिक हैं और परिणामस्वरूप गंदी बस्तियों में निरन्तर वृधि होती जा रही है ।स्थानाभाव के चलते संक्रमण तथा रोग व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं ।छोटे छोटे बच्चे अपने परिवार के साथ तंग जगह में रहते हैं ।परिवार में पड़ी बीमार व्यक्तियों के साथ रहने पर संक्रामक कीटाणु उन्हें भी संक्रमण के जाल में फंसा लेता है ।फलत: डायरिया, मीजल्स आदि के बाद भूख खत्म हो जाती है और शरीर निर्बल होकर कुपोषण की स्थिति में चला जाता है ।
नगरीय जनसंख्या का दबाव – बढ़ती जनसंख्या के साथ जमीन तो बढ़ी नहीं फलस्वरूप रोजगार की खोज में लोग गांव से शहरों की तरफ भाग रहे हैं ।जहां उन्हें राहत के स्थान पर तमाम तकलीफों का सामना करना पड़ता है ।रहने को मकान नहीं, खाने को अच्छा खाना नहीं, शुद्ध पानी नहीं, गंदगी से भरा वातावरण तथा भीड़-भाड़, इन सबके कारण उन स्वाथ्य गिरता जाता है फलत: वे कुपोषण के शिकार हो जाते हैं, जिसका प्रभाव उनके बच्चों पर पड़ता है ।
औद्योगिक क्रांति – गंदी बस्तियों की उत्पत्ती में औद्योगिकक्रांति की महत्वपूर्ण भूमिका है ।औद्योगिकनगर में जीविका के अनके विकल्प उपस्थित होते हैं ।लाखों की संख्या में ग्रामीण व्यक्ति यहां अधिक से अधिक धन अर्जित करने की कल्पना सजाए आता है परंतु उसे यहां निराशा ही हाथ लगती है ।वह मिल, फैक्टरी, कारखाना या और किसी प्रकार का श्रम करके पटे भरता है ।निर्धनता उनका स्थायी धन है ।इसे औद्योगिकमहानगरीय सभ्यता और संस्कृति में उसे तो गंदी बस्तीयों में रहना पड़ता है ।उसके पास इसके अतिरिक्त विकल्प की क्या है ?
शिक्षा और जागरूकता का अभाव – शिक्षा और जागरूकता के अभाव में गंदी बस्तियों के विकास में वृधि हुई है ।वे व्यक्ति जो निर्धनता के शिकार हैं, वे गंदी बस्तियों की गंदगी से भी अनभिज्ञ हैं ।जहां सुविधाएं नाम को भी नहीं है और बीमारियों और सामाजिक बुराइयां असीमित हिं फिर भी यहां इसलिए आतें हैं क्योंकि उन्हें नाम मात्र का किराया देना पड़ता है ।अशिक्षा के चलते भोजन के पौष्टिक तत्वों के संरक्षण की विधि से लोग वाकिफ नहीं हैं ।भोजन को तल कर खाने में उन्हें, इस बात का अंदाजा नहीं लगता है कि वे अपने ही हाथों से, जो कुछ उन्हें मिल सकता था, उसे भी नहीं ले रहें हैं ।भोजन में पकाया पानी या माड़ आदि निकालकर, न जाने कितने पोषक तत्व वे स्वयं नष्ट कर देते हैं ।शिक्षा और जागरूकता के अभाव में वे अपने ही हाथों से अपनी ही क्या, अपनी अगली पीढ़ी की भी हानि कर रहें हैं।
गतिशीलता में वृद्धि – पहले व्यक्ति को अपनी जमीन और घर की ड्योढ़ी से अत्यधिक लगाव था ।वह किसी भी दशा में अपना गांव, क़स्बा छोड़ना नहीं चाहता था, किन्तु औद्योगिकक्रांति और आवगामन की सुविधाओं ने व्यक्ति को नगरों में काम खोजने और नौकरी करने के लिए उत्प्रेरित किया ।नित्य लाखों की संख्या में व्यक्ति एक गांव से एक नगर, एक नगर से दुसरे नगर और नगर से महानगर में काम की तलाश में जाता है ।इतने व्यक्तियों के रहने के स्थान कोई भी नगर, अबालक कैसे बना सकता है ।अस्तु वे गंदी बस्तियों के शरण में जाते हैं ।इस तरह गंदी बस्तियों का विकास निरन्तर होते जा रहा है ।
शोषण की प्रवृति – उत्पादन का महत्वपूर्ण अंग श्रमिक, मलिन बस्तियों में रहता है और मालिक वातानुकूलित बंगलों में ।पूंजीवादी व्यवस्था की यह बुनियादी नीति है कि आप आदमी की रोजी-रोटी की परेशानियों में फसायें रखें ।भूखा व्यक्ति अपने परिवार के पेट भरने की चिंता पहले करता है और कुछ बाद में ।उसे जीने की इतनी सुविधाएं नहीं देते जिससे की वह दहाड़ने लगे और बाजू समेटकर अपने अधिकारों की मांग करने लगे ।इसलिए उसे अभाव में जीने दो जिससे कि वह सदैव मालिकों का दास बनकर रहें ।उसकी स्थायी नियत शोषण करना है , श्रमिकों को सुविधायें पहुंचना नहीं । अंततःनिर्धन शोषित श्रमिक रहने के लिए मलिन बस्तियों की शरण में ही जाता है ।
सुरक्षा का स्थल है – गाँव छोड़कर ग्रामीण इसलिए भी नगर आ रहा है क्योंकि वहां सुरक्षा नाम की कोई चीज नहीं है ।चोरी और डकैती सामान्य बात है ।डकैतों का बढ़ता हुआ आतंक ग्रामीणों को गाँव छोड़ने के लिए मजबूर करता है ।नगर में प्रशासक, पुलिस की व्यवस्था है जो उनके जान-माल की रक्षा करती है ।इसलिए नगर की जनसंख्या में निरन्तर वृधि हो रही है और इसी के साथ गंदी बस्तियों में भी वृधि हो रही है ।
ग्रामीण बेरोजगारी – भारतीय निर्धन गांव जहाँ वर्ष में कुछ ही महीने व्यक्ति को काम मिलता है और शेष माह वह बेरोजगारी के अभिशाप को भोगता है ।ग्रामीण क्षेत्र में इस प्रकार की व्यवस्था नहीं है कि व्यक्ति को खाली समय में काम मिल सके ।इसलिए खेती के समय जो ग्रामीण व्यक्ति गाँव में उपलब्ध रहता है उसके पश्चात वह नगरों में काम करने आ जाता है ।इनमें से अधिकांश व्यक्ति रिक्शाचालक, ठेले खींचने वाले, खोमचा लगाने वाले या मिल में श्रमिक होते हैं अथवा कोई छोटा-मोटा कार्य करके अपनी जीविका अर्जित करते हैं ।उनमें से अधिकांश व्यक्ति गंदी बस्तियों में रहते हैं ।यह उनकी विवशता भी है ।
नगर नियोजन का अभाव – नगर में गंदी बस्तियों का यदि विकास हो रहा है तो इसका बहुत कुछ उत्तरदायित्व नगरपालिका और सरकार पर है ।यदि नगर का विअकास सुनियोजित और योजनाबद्ध ढंग से किया जाए तो गंदी बस्तियों का विकास शायद इस रूप में संभव न हो पता और ये नगर और मानवता के कलंक न बन सकते ।
दुष्परिणाम – धरती के ये नरक सभ्य मानव जाति के लिए कलंक है ।ये वे स्थान हैं जहाँ से असंख्य बुराइयां उत्पन्न होती हैं और सम्पूर्ण समाज को निगल जाती है ।गंदी बस्तियों के दुष्परिणाम निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर समझे जा सकते हैं :
यह वह स्थान है जहाँ कमरों में भीड़ रहती है और व्यक्ति एकांत के लिए व्याकुल रहता है ।एक-एक कमरे में 10-15 व्यक्ति रहते हैं ।इनमें कुछ भी गोपनीय नहीं रहता है। शीघ्र ही बच्चे बुरी आदतों को ग्रहण कर लेते हैं ।
गन्दगी से परिपूर्ण यह स्थान बीमारियों के केंद्र हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह मानव समाज नरक है ।यहां सब कुछ प्रदूषित है ।न यहां शुद्ध जल है न वायु और न वातावरण बच्चे इस नारकीय स्थान में रहतें हैं ।यहां क्षय रोग सामान्य बात है ।पेचिश , डायरिया तथा अनेक रोग यहां के बच्चों की विशेषता है ।
बच्चे सामाजिक बुराइयों के बीच जन्म लेते हैं। इनके चारों तरफ असामाजिक वातावरण होता है ।ये सहज ही बुराइयों को अपना लेते हैं और बचपन से ही ये सब करने लगते हैं जो अपराध है ।इनके मध्यम से ही चरस, गांजा कच्ची शराब बेची जाती है ।यह अनैतिक यौन संबधों की दलाली करते हैं। जुओं के अड्डों की देख-रेख करते हैं ।इन्हें इसी रूप में प्रशिक्षित किया जाता है ।आगे चलकर यह गंभीर अपराधी बनते हैं ।
यहां व्यक्तित्व और परिवार का निर्माण होता। अधिकांश परिवार अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए उचित व अनुचित सभी प्रकार के कार्य करते हैं ।शराब ,जुआ, अनैतिक यौन संबंध, चोरी आदि व्यक्ति को जहां नष्ट करते हैं वही पारिवारिक को भी विघटित करते हैं ।बच्चे इसे देखकर अपने पुवाजों की परंपरा का निर्वाह भविष्य में भी करते हैं ।
ये वे स्थान हैं जहां सामाजिक आदर्श, मुल्य, नैतिकता, सहिष्णुता आदि के दर्शन होते हैं ।ये अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए सब कुछ करने के लिए तैयार रहते हैं। इन्हें खरीदकर इनसे कुछ भी कराया जा सकता है ।अराजक तत्व यहां बनाये जाते हैं ।ये वे व्यक्ति हैं जो समाज में गड़बड़ियाँ उत्पन्न करने के लिए ख़रीदे जाते हैं ।इस प्रकार के कार्यों से समाज विघटित होता है ।
बंदी बस्तियों की व्याख्या करते हुए डॉ राधा कमल मुखर्जी ने लिखा है – “औद्योगिककेंद्रों की हजारों मलिन बस्तियों ने मनुष्यत्व को पशु बना दिया है, नारीत्व का अनादर होता है और बाल्यावस्था को आरम्भ में ही विषाक्त किया जाता है ।ग्रामीण सामाजिक सहिंता श्रमिकों को औद्योगिककेंद्रों में अपनी पत्नियों के साथ रहने के लिए हतोत्साहित करती है ।
भारत में गंदी बस्तियों की समस्याएं पाश्चात्य देशों की बस्तियों की समस्याओं से भिन्न हैं ।यहां गंदी बस्ती का अर्थ गन्दगी और बीमारी से बसर कर रहे छोटे-छोटे, टूटे-फूटे माकानों में रह रहे लाखों लोगों से है, जो गरीबी रेखा के नीचे बसर कर रहे हैं, सीमांत जब समूह हैं ।अंग्रेजी में इसे ‘मारनल पोपुलेशन’ कह सकते हैं ।जो भी हो इन सब गंदी बस्तियों का जीवन प्रणाली अलग ही है ।इन बस्तियों में निवास कर रहे लोग अलग हैं तथा इन लोगों का दृष्टिकोण और इनकी सामाजिक व्यवस्था समाजशास्त्रियों के अध्ययन के लिए रूचि कर विषय है ।
गंदी बस्ती का विकास शहर के विकास के साथ जुड़ा हुआ है और इसके साथ तरह-तरह की समस्याएं भी उत्पन्न हुई है ।यधपि नगरीकरण ने गंदी बस्तियों को जन्म दिया है और इन गंदी बस्तियों ने नई समस्याएं एवं चुनौती पैदा की है।मैक्स वेबर के अनुसार “जब-जब नगर से महानगरों का विकास होता है, तब-तब भ्रष्टाचार के नये-नये रूप भी प्रकाश में आतें हैं ।“
गंदी बस्ती तथा उनके जैसी सघन मुहल्लों में संख्या भारत के नगरों से दिन-व-दिन बढ़ती जा रही है ।1969 के एक सर्वेक्षण के अनुसार बम्बई में कुल 206 बस्तियाँ थी जिसमें कुल 6,31,000 लोग रहते थे ।1991 के जनगणना के अनुसार पटना शहर की आबादी लगभग 9.18 लाख थी ।इनमें से 3.43 लाख आबादी पटना की 68 गंदी बस्तियों में रहती थी ।यह शहर की कुल जनसंख्या का 37.3 प्रतिशत था ।इन केंद्रों में प्रति वर्ग किलोमीटर जनसंख्या का घनत्व 44-84 था ।
वर्त्तमान आर्थिक स्तर पर भारत कुपोषण की समस्या को कुछ कारगर तथा उपयुक्त योजनाओं के द्वारा 50 प्रतिशत तक खत्म कर सकता है ।बच्चों में समुचित पोषण मूल्य को सुनिश्चित करने के काम में महिलाएं ही महत्वपूर्ण कदम उठा सकती हैं ।बच्चों तथा परिवार के पोषण के स्तर में सुधार लाने के लिए महिलाओं को पोषण संबंधी जानकारी अच्छी तरह देनी होगी जिससे वे उन्हें अपनी रोजमर्रा की आदतों में शामिल कर सकें ।

मनुष्य की तीन मूलभूत आवश्यकताएं हैं – भोजन, वस्त्र और आवास
भोजन करना प्रत्येक व्यक्ति के दैनिक जीवन का एक अनिवार्य भाग है ।भोजन के बिना कोई व्यकित कुछ ही दिनों तक जीवित रह सकता है तथा ऐसा समय में शारीर में उपस्थित भोज्य तत्व निरन्तर व्यय होते रहते हैं व अंत समय तक व्यक्ति कंकाल मात्र ही रह जाता है ।अत: यदि शरीर पूर्ण स्वस्थ व क्रियाशील रखना है तो प्रतिदिन आवश्यकतानुसार भोजन लेना अनिवार्य होगा।
भूख लगना प्राकृतिक के अपरिवर्तनीय नियमों में से एक है ।भूख मिटाने के लिए हम भोजन करते हैं ।भोजन न करने से हमारा शरीर दुर्बल हो जाता है तथा हम विभिन्न प्रकार के रोगों के शिकार हो जाते हैं ।इस तरह भोजन केवल हमारे भूख को मिटाता है बल्कि यह हमारे शरीर का निर्माण करता है, शरीर को ऊर्जा  यानि शक्ति प्रदान करता है तथा हमारे शरीर के विभिन्न क्रियाओं को नियंत्रित करता है ।
भोजन ही आहार है, हम आहार को मुख्य रूप से दो भागों में बांटते हैं – (क) अपर्याप्त आहार तथा (ख) पर्याप्त या सन्तुलित आहार
अपर्याप्त आहार वह आहार है जो भूख को शांत करने के लिए किया जाता है ।इस प्रकार के भोजन से हमारा भूख तो मिट जाता है एवं शरीर क्रियाशील रहता है पर ऐसे भोजन में पौष्टिक तत्वों की कमी के कारण शरीर में रोग निरोधक क्षमता नहीं रहती है ।
दूसरी और सन्तुलित आहार व भोजन है जिसमें सभी पौष्टिक तत्व उचित मात्रा में रहते हैं ।दुसरे शब्दों में ये कहा जा सकता है कि सन्तुलित आहार है जिसमें शरीर में समस्त पोषण-संबंधी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए सभी पोषक तत्व उचित मात्रा में उपलब्ध रहता है ।इसलिए सुपोषित भोजन हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है, पोषण उन प्रतिक्रियाओं का संयोजन है जिनके द्वारा जीवित प्राणी अपनी क्रियाशीलता को बनाये रखने के लिए तथा अपने अंगों की वृधि एवं उनके निर्माण हेतु आवश्यक पदार्थों को प्राप्त करता है एवं उनका उपभोग करता है ।इस प्रकार पोषण शरीर में  भोजन के विभिन्न कार्यों को करने की सामुहिक प्रतिक्रियाओं का ही नाम है ।
अपर्याप्त भोजन या कुपोषण के दुष्परिणाम निम्नलिखित लक्षणों के रूप में प्रकट होते हैं :
➥ शरीर कमजोर होने लगता है क्योंकि शरीर को पर्याप्त ऊर्जा  प्रदान करने वाले भोजन तत्वों की कमी के कारण दूसरी शक्ति नहीं मिल पाती है ।
➥ शरीर में रक्त की कमी होने लगती है ।
➥ शरीर में वजन क्रमशः कम होने लगता है ।
➥ त्वचा, शुष्क, खुरदुरा एवं झुर्रीदार हो जाती है ।
➥ मांसपेशियां ढीली-ढाली एवं शिथिल हो जाती हैं ।
➥ अस्थियों की वृधि एवं विकास की गति में रुकावट हो जाती है जिसका शारीरिक विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है ।
➥ नेत्रों की ज्योति कम हो जाती है और बच्चे रतौंधी के शिकार हो जाते हैं ।
➥ शरीर की रोग-निरोधक क्षमता का हस्र हो जाता है जिससे बच्चे बार-बार बीमार पड़ते हैं ।
➥ थकान का अनुभव बड़ी शीघ्रता से होने लगता है ।

इस तरह यह कहा जा सकता है कि भोजन में कई रासायनिक पदार्थ उपस्थित होते हैं ये भोज्य तत्व ही हमारे शरीर को स्वस्थ रखने व क्रियाशील रखने के लिए उत्तरदयी होते हैं ।ये तत्व कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन, खनिज तत्व, विटामिन व जल हैं, जो भोजन में विभिन्न अनुपातों में उपस्थित रहते हैं ।इन तत्वों से शरीर को क्रियाशील रखने के लिए ऊर्जा  तथा शरीर को गर्म रखने के लिए ऊर्जा  की प्राप्ति होती है ।निरन्तर परिवर्तन होते रहना जीवित पदार्थों का एक विशेष गुण है।मनुष्य के शरीर में भी निरंतर परिवर्तन होते रहता है ।जीवन के प्रारंभिक वर्षों में शरीर में बराबर वृधि व विकास होता रहता है तथा विभिन्न अंगों के क्रियाशील रहने के कारण उनकी कोशिकाओं से बराबर टूट-फूट का निर्माण करने में सहायक होती है ।इसके अतिरिक्त भोज्य के तत्व हमारे शरीर में होने वाली विभिन्न जटिल प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करता है जिससे हमारा स्वास्थ्य उत्तम रहता है तथा रोगादि से बचा रहता है ।
गंदी बस्तियों में निवास करने वाले परिवारों में निर्धनता के परिणामस्वरूप समुचित मात्रा में भोजन उपलब्ध नहीं हो पातें हैं ।श्रम के अनुरूप शरीर में ऊर्जा  प्राप्त करने के लिए प्रचुर मात्रा में भोजन नितांत आवश्यक है ।गंदी बस्तियों में निवास करने वाले दैनिक मजदूर, ठेला मजदूर, रिक्शाचालक , खोमचावाले तथा निम्न आय वर्गीय व्यक्ति होते हैं ।अशिक्षा एवं अज्ञानतावश इनके परिवारों की संख्या अधिक होती है ।अपनी सीमित आय से वे अपने परिवार का भरण-पोषण सही ढंग से नहीं कर पाते हैं ।निर्धनता इनके लिए अभिशाप है । भोजन की समुचित मात्रा उपलब्ध नहीं होने से ये बच्चे अपने बाल्यकाल में ही अनेक रोगों से ग्रसित हो जातें हैं ।इनका शारीरिक एवं मानसिक विकास शिथिल पड़ जाता है ।आवश्यकता इनके लिए समुचित भोजन उपलब्ध करवाने की है ।वर्तमान में सरकार ने इन गंदी बस्तियों में रहने वाले लोगों को लाल कार्ड वितरण की व्यवस्था करने का प्रयास किया है. जिसके अंतर्गत उन्हें उचित मात्रा में उचित मूल्य पर खाधान्न उपलब्ध कराये जायेंगे ।लेकिन सरकारी तंत्र उन्हें सही तरीके से उपलब्ध करा पायेगा या नहीं विचारणीय प्रश्न है ?
द्वितीय, वस्त्र मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है ।गंदी बस्तियों में निवास्क करने वाले लोगों की यह एक समस्या है ।वे मैले कुचैले कपड़े धारण करते हैं ।लोग इन्हें घृणा की दृष्टि से देखते हैं ।जिन निर्धन व्यक्तियों को पर्याप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध नहीं होता है उन्हें आचे वस्त्र नसीब कहां होंगे 
उनके बच्चे नंग-धडंग अवस्था में इन बस्तियों में रहते हैं, कुछ पहनते भी है तो वे मैले-कुचैले होते हैं जिससे महामारी तथा अन्य रोग होने का खतरा रहता है ।इस अवस्था में इनके बच्चे प्राय: अस्वस्थ रहते हैं ।समुचित चिकित्सा वयवस्था के आभाव में वे अकाल ही काल कलवित हो जाते हैं ।
तृतीय, गंदी बस्तियों में निवास करने वाले लोगों की मुख्य समस्या आवास की समस्या है ।औधोगिकीकरण और नगरीकरण ने अनेक समस्याओं को नगर में उत्पन्न करने का श्रेय प्राप्त किया है ।निर्धन ग्रामीण व्यक्ति जीविका की खोज में नगरों और विशेषतया औद्योगिकनगरों में बड़ी संख्या में आ रहे हैं ।उसे पेट भरने के लिए यहां कोई –न –कोई काम मिल जाता है किन्तु रहने के लिए स्थान नहीं मिल पाता है ।उसे इतना भी स्थान नहीं मिलता, जहां वह खाना बना सके, रात में सो सके और अपना खाली समय व्यतीत कर सके ।निर्धन श्रमिक और वेतन भोगी व्यक्ति की इतनी आय नहीं है कि वह भूमि का क्रय करके अपना मकान बना सके और यदि किसी प्रकार उसने कोई टुकड़ा भूमि खरीद भी लिया तो उस पर मकान बनाना उसकी शक्ति के बाहर होता है ।
गंदी बस्तियों को साफ करने पर नियुक्त परामर्शदाता समिति के अनुसार औद्योगिकनगरों में 6 प्रतिशत से 7 प्रतिशत से लोग बस्तियों में रहते हैं ।ग्रामीण व्यक्ति छोटे से कच्ची मिटटी के मकान में रहता है अथवा वहां असंख्य घास, फूंस के छप्पर वाले मकान है ।मिटटी के बने मकानों में बारहों मॉस सीलन बनी रहती है ।इसके साथ ही उस छोटे से मकान में अनके व्यक्ति रहते हैं ।निर्धन ग्रामीण बड़े मकान की कल्पना भी नहीं कर सकता है ।जिन मकानों में निर्धन रहता है वहां अँधेरा उसका साथी है और जीवन सुरक्षा नाम की कोई चीज इन मकानों में नहीं होती है ।

सरकार द्वारा आवास समस्या के निराकरण के प्रयास – गंदी बस्तियों को हटाने और उनका सुधार करने के लिए सरकार कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर रही है ।गंदी बस्तियों को हटाने के लिए द्वितीय पंचवर्षी योजना में 20 करोड़ रुपये निश्चित किये गये ।वर्त्तमान में 114.86 करोड़ रुपये राज्यों के लिए आवास योजनाओं के लिए आवास योजनाओं में व्यय करने हेतु प्रदान किये गये हैं ।सरकार आवास समस्या के समाधान हेतु सदैव जागरूक रही है ।उसने कमजोर वर्ग और औद्योगिकश्रमिकों के लिए अनके नगर और महानगरों में मकानों का निर्माण किया है ।उसने निम्न और मध्यम आय वर्ग के लिए विशेषतया लाखों मकानों का निर्माण करके उन्हें सरल किश्तों पर बेचा जा रहा है ।
गंदी बस्ती में पोषाहार एवं कुपोषण – पोषण राष्ट्रिय विकास का मूल घटक है ।कुपोषण पर धयान देना एक नैतिक आवश्यकता है ।कुपोषण समाज में अस्वीकार्य है क्योंकि वह व्यक्ति के उपयुक्त पोषण के अधिकार का हनन करता है ।यह पोषण मानव संसाधनों की गुणवत्ता पर आधारित होती है जो कि आबादी के स्वाथ्य तथा पोषक स्तर द्वारा देखभाल ।इसकी पूर्ति के लिए संसाधनों की पहचान तथा साथ-साथ समुदायों का सशक्तिकरण और गरीब वर्गों के लिए सहायक योजना का होना जरुरी है ।
कुपोषण और लघु पोषण अपूर्णता, कार्य के परिणाम तथा गुणात्मक उत्पादकता के संदर्भ में, निम्न श्रम उत्पादकता का कारण होता है ।इसके कारण बच्चों में शैक्षणिक उपलब्धियां निम्नतम होती जाती हैं, स्कूलों में नामांकन तथा उपस्थिति की दर कम होती है ।तथा बच्चों में स्वास्थ्य तथा मृत्यु दर में बढ़ोतरी होती जाती है ।जिस प्रकार उन्नत उत्पादकता ज्यादा मुनाफा देती है उसी प्रकार उन्नत पोषण उत्पादकता में वृधि के साथ-साथ श्रम आय में वृधि करेगा ।
कुपोषण नियंत्रण नीतियों की मूलतः दो विचारधाराएं हैं ।पहले सिद्धांत के अनुसार कुपोषण मूलतः गरीबी का परिणाम है ।अत: इसे दूर करना गरीबों की उत्पादकता में वृधि, आय के स्तर को ऊँचा करने एवं खाद्य प्रणाली के वितरण पर निर्भर करता है ।दूसरा सिद्धांत इस अवधारणा पर आधारित है कि लोग कुपोषण के शिकार इसलिए होते हैं क्योंकि वे समुचित पोषण स्तर तथा स्वस्थ वातावरण को सुनिश्चित करने वाले संसाधनों का उचित उपयोग नहीं कर पाते ।इसलिए कुपोषण का सामना करना घरेलू संसाधनों का उपयोग, निरक्षरता के समापन, पोषण संबंधी जानकारियों में वृधि तथा सही आदर्शों के विकास पर ही निर्भर करता है ।
नया विकास प्रतिमान गरीबों द्वारा पोषण-संबंधी समस्याओं के समाधान पर जोर देता है ।उनकी सामना करने की रणनीतियों के पहचानकर सशक्त बनाया जा रहा है ।सबों की भागीदारी मुख्यत: महिलाओं की भागीदारी सशक्तिकरण की ओर ले जाएगा जिससे स्थानीय संसाधनों को कयाम तथा संघटित रखा जाएगा । ज्ञान और जानकरी, जो कि सशक्तिकरण का मुख्य घटक है, समस्याओं को जड़ों के विश्लेषण में मदद करता है तथा संसधानों द्वारा उपर्युक्त कार्यवाही में मदद करता है ।
6 वर्ष से कम उम्र में बच्चों में शारीरक विकास का आभाव देखा गया है जो कुपोषण के कारण पुरे देश व्याप्त है ।नवजात शिशुओं और बच्चों में मृत्यु का कारण यह है कि करीबन 30 प्रतिशत बच्चे 2.3 किलोग्राम से भी कम वजन के होते हैं ।अधिकांशत: स्कूल जाने से पूर्व की उम्र के बच्चों में करीब 69 प्रतिशत कम वजन के , जिसमें 9 प्रतिशत गंभीर कुपोषण से ग्रस्त रहते हैं तथा 65 प्रतिशत अविकसित तथा 20 प्रतिशत अत्यंत दुर्बल होते हैं । 6 महीनों की उम्र वह नाजुक समय है जब शिशु होता है और 24 महीने की उम्र तक चलता है ।कुपोषण 6 महीने से 2 वर्ष की उम्र के बच्चों को जायदा प्रभवति करता है ।
प्रोटीन ऊर्जा  कुपोषण विकास में अवरोध में शरीर के वजन में कमी तथा अन्य दुर्बलताएं विशेषतया छोटे बच्चों में मृत्यु के खतरे को बढ़ता है ।
इस बात के प्रमाणित हुई है कि कुपोषण से ग्रस्त बच्चों को भविष्य में अपकर्षक बीमारियों जैसे उच्च रक्तचाप तथा मधुमेह होने की संभावना रहती है ।बच्चों के विकास को कायम रखने में परिवारों की अक्षमता के ये कारण हो सकते हैं  ।

➥ खिलाने की गलत आदतें ।
➥ माता की तरफ से अनजाने में होने वाली बाधाएं
➥ संक्रमण बीमारियों का बार-बार होना
➥ कई बार शरीर की ऊर्जा  संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए क्रयशक्ति का अभाव
➥ अपर्याप्त भोजन लेना, उन घरों में जहां भोजन की कमी न हो,
➥ बच्चों के विकास और देख-रेख संबंधी जानकारी एवं कुशलताओं का अभाव एवं कमी ।
➥ बच्चों के जीवन की अच्छी शुरुआत को बढ़ावा देने के लिए 6 से 24 महीनों के बीच बच्चों को कुपोषण का शिकार होने से बचाना होगा ।
➥ कुपोषण को कम करने के लिए उसके कारणों पर ध्यान देना होगा, जैसे अपर्याप्त औजार और संक्रमण/बीमारी तथा खाने-पीने की सही आदतों को डालने में तेजी लानी होगी ।कुपोषण की स्थित्ति में सुधार लाना एक चुनौती है ।यह परिवार के सदस्यों, समुदायों तथा इस क्षेत्र में काम करने वालों पर निर्भर करता है ।कुपोषण की रोकथाम या उसकी नियंत्रण में लाने के लिए उनको जागृत होना होगा ।
बिहार की आबादी का 40.8 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे जी रहा है ।हालांकि समूचे राज्य के लिएय कोई प्रमाणिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है फिर भी राष्ट्रीय पोषण संस्थान द्वारा नमूने के तौर पर किये गए अध्ययन से ज्ञात होता है कि राज्य में लगभग 11 प्रतिशत बच्चे श्रेणी तीन और श्रेणी 4 के कुपोषण से, 32 प्रतिशत बच्चे दो के कुपोषण से तथा 36 प्रतिशत बच्चे श्रेणी के कुपोषण से ग्रसित हैं ।सिर्फ 12 प्रतिशत बच्चे ही सामान्य श्रेणी के हैं । इस प्रकार यह लगता है कि बिहार में लगभग 79 प्रतिशत बच्चे किसी न किसी श्रेणी के कुपोषण के शिकार हैं ।
एक अन्य विश्लेषण बच्चे के जीवन के दुसरे वर्ष के निर्णायक महत्त्व के बारे में बताता है कि 1 से 2 वर्ष के आयु वाले 86 प्रतिशत बच्चे कुपोषित पाये गए हैं, जिसमें से 18 प्रतिशत गंभीर कुपोषण के शिकार हैं ।तदापि 1 वर्ष की आयु वाले लगभग 36 प्रतिशत बच्चे पोषण के मामलों में सामान्य स्तर के हैं ।यह आंकड़ा 1 से 2 वर्ष के बच्चों के मामले में 14 प्रतिशत तक कम हो जाता है ।
किशोरावस्था की गर्भावस्था और यह तथ्य कि तीन चौथाई गर्भवती महिलाएं पोषाहारीय, रक्ताल्पता की शिकार होती हैं, इस संभावना को बल देता है कि जन्मे के समय कम वजन वाले बच्चों का प्रतिशत अधिक है ।
एक उम्र के विवाह और कम उम्र के गर्भाधान, यानी “ काफी पूर्व काफी नजदीक काफी अधिक काफी बिलम्ब “ के परिणामस्वरुप ही राज्य में माताओं के पोषण का स्तर अत्यन्त ख़राब है जैसा कि उपर अंकित है, राज्य का लगभग तीन चौथाई गर्भवती महिलाएं रक्ताल्पता से ग्रसित हैं और उसमें सुधार के कोई आसार नजर नहीं आतें हैं ।

सूक्ष्म पोषक पदार्थों का अभाव :
विटामिन ‘ए’ – हालांकि बिहार के लिए अलग से कोई आंकड़ा मौजूद नहीं है फिर भी ऐसा अनुमान लगाना वास्तविकता से बहुत भिन्न नहीं होगा कि पोषाहार की कमी के कारण भारत में हर वर्ष जो 40000 लोग अन्धें हो जाया करते हैं, उनमें से 10 प्रतिशत बिहार के ही होंगे ।इसी प्रकार देश में विटामिन ‘ए’ के अभाव से ग्रसित जो लगभग 10 लाख बच्चे हैं उनमें से निश्चित तौर पर 10000 बिहार के होंगे ।
आयोडीन की कमी से होने वाले विकार – समूचा बिहार आयोडीन की कमी से होने वाले विकारों के दायरे में है ।इसकी कमी से घेघा जैसे बीमारियां उत्पन्न होती हैं, जो बच्चे के विकास में बाधक है ।
इस तरह माताओं की अशिक्षा, अज्ञानता अंधविश्वास, रूढ़िवादिता के चलते बच्चे कुपोषण के शिकार होते हैं ।सबसे प्रमुख बात तो यह है कि इनकी आर्थिक स्थितियां दयनीय होती हैं तथा परिवार में बच्चों की संख्या अधिक होता है जिसके चलते बच्चे को उपयुक्त आहार उपलब्ध नहीं हो पाता है ।अपर्याप्त आहार के कारण बच्चों को पौष्टिक तत्व नहीं मिल पाते जिसके कारण रोग निरोधक क्षमता कम हो जाती है और वे अनेक बीमारियों तथा शारीरिक विकास का अवरुद्ध होना, रक्तहीनता का शिकार, मांसपेशियों का शिथिल हो जाना, मानसिक विकास अवरुद्ध होना, चिडचिडापन आना आदि से ग्रसित हो जाते हैं ।
भोजन तथा उसके पोषक तत्व – मनुष्य जो भोजन करता है उसका शरीर में पाचन हो जाता है और वह उतकों के विकास तथा रख-रखाव में प्रयुक्त होता है ।भोजन के बिना जीवन नहीं चल सकता ।इसीलिए, प्रत्येक जीवधारी अपनी भोजन आवश्यकताओं की प्राप्ति के निमित अतिमात्र प्रयत्न करता है ।वनस्पति वर्ग तो मिटटी, पानी और हवा की कार्बन डाईआक्साइड के लिए कुछ साधारण रसायनों से अपने लिए यथेष्ट भोजन कर निर्माण करने की क्षमता नहीं होती ।इसलिए वे वनस्पति जगत व अन्य पशुओं पर निर्भर रहकर अपना भोजन प्राप्त करते हैं ।
पशु जगत अपनी भोजन आवश्यकताओं के पूर्ति मुख्यत: प्राकृतिक वरण के सिद्धांत के अनुरूप करता है अर्थात वह उन पौधों और पशुओं का चयन करता है जो विकासवादी सिधांतों के अनुसार जीवित रहने के योग्य नहीं हो ।परन्तु मानव को अपनी आहार पूर्ति के लिए अनेक खाद्य पदार्थ उपलब्ध होते हैं जिनमें से वह इच्छानुसार चुनाव कर सकता है ।चूँकि सरे ही खाद्य पदार्थ एक से पोषक मूल्य के नहीं होते हैं, अत: मानव स्वास्थ्य उन खाद्य द्रवों की संरचना तथा उनकी मात्रा पर निर्भर रहता है जिन्हें वह अपनी क्षूधतृप्ति के लिए चुनता है ।भूख एक जन्मजात प्रवृति है ।भोज्य पदार्थों को जीवन के रूप में ग्रहण किया जाता है ।इनमें से कुछ शरीर निर्माण तथा मरम्मत के लिए जरूरी है, कुछ से ऊर्जा  यानि कार्य करने की शक्ति मिलती है ।
हमरे जीवन में कुछ स्वास्थयप्रद पदार्थ होते हैं जिन्हें पोषक तत्व कहा जाता है ।पोषक तत्व हमारे शरीर के लिए निम्नलिखित कार्य करते हैं :
➥ शरीर को सुविकसित करते हैं ।
➥ व्यक्ति का भार उसकी उंचाई एवं आयु के अनुकूल रखते हैं ।
➥ मांसपेशियां को सुदृढ़ एवं सुविकसित करते हैं ।
➥ पोषक तत्वों का एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य हमारे शारीरिक गठन को ठीक बनाए रखना है जैसे कसी सीधा ताना हुआ, सीना ताना हुआ, कंधे सपाट, पेट अन्दर की ओर तथा लचीले कदम ,
➥ पोषक तत्व त्वचा को चिकनी एवं स्वस्थ बनाए रखते हैं ।
➥ ये हमारे बाल को चिकने एवं चमकीले रखते हैं ।
➥ पोषत तत्वों से हमारे आँख की ज्योति ठीक रहती है ,
➥ ये हमारे शरीर को शारीरिक एवं मानसिक रूप से क्रियाशील रखते हैं ,
➥ इस तरह कहा जा सकता है कि विभिन्न पौष्टिक तत्वों की उचित माता में लेने से –
➥ हमारा शारीरिक विकास एवं स्वास्थ्य ठीक रहता है ,
➥ हमारे शरीर में रोग निरोधक क्षमता आती है ।
➥ हमारी शारीरिक कार्यक्षमता एवं कुशलता में बढोत्तरी होती है
➥ मानिसक संतुलन बना रहता है तथा हम दीर्घायु होते हैं ।
भोज्य पदार्थों में कई पोषक तत्व होते हैं तथा ये विभिन्न कारकों से हमारे स्वास्थ्य के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं –
प्रोटीन – प्रोटीन हमरे लिए एक महत्वपूर्ण पोषक तत्व हैं क्योंकि (क) यह हमारे शरीर के कोशिकाओं का निर्माण, वृधि , गठन एवं उसकी क्षति पूर्ति करता है जिससे हमारे अंग-प्रत्यंगों का उचित गठन एवं विकास होता है ।(ख) यह बच्चों के शारीरिक वृधि में महत्वूर्ण भूमिका अदा करता है ।(ग) रोग निरोधक क्षमता को बढाता है ।
कार्बोहाइड्रेट – यह एक महत्वपूर्ण पोषक तत्व है इसका मुख्य काम शरीर के लिए ऊर्जा  उत्पन्न करना है ।ऊर्जा  ही शरीर की सभी एच्छिक एं अनैच्छिक क्रियाओं के लिए गति एं शक्ति प्रदान करता है
वसा – वसा भी एक ऊर्जा  पोषक तत्व है क्योंकि (क) वसा में अधिक मात्रा में अधिक समय तक स्थायी ऊर्जा  उत्पादित होती है, (ख) ह्रदय को मांसपेशियां को मुख्य रूप से ऊर्जा  वसा से ही प्राप्त होती है , (ग) आंतरिक अवयवों के चारों ओर जमा होकर स्थिरता प्रदान करते हैं, (घ) कोशिकाओं की रचना में भाग लेते हैं ,(ड) आकस्मिक आघात के समय शरीर की यथाशक्ति रक्षा करते हैं ।
विटामिन ‘ए’ – हमारे स्वास्थ्य के लिए यह एक अति आवश्यक पौष्टिक तत्व है क्योंकि –
➥ यह शरीर वृधि में सहायक होता है उसकी लम्बाई ठीक तरह से होती है ।
➥ यह रात में अंधेरे में अच्छी तरह दिखाई देने के लिए दृष्टि शक्ति बनाए रखता है ।
➥ उपकला की कोशिकाओं को मजबूत बनाने में और उसके पुननिर्माण में सहायक होता है ।
➥ विटामिन ‘डी’- हमारे स्वास्थ्य के लिए विटामिन ‘डी’ कई तरह से लाभदायक होते हैं :
➥ यह रक्त में कैल्सियम की मात्रा को नियमति बनाए रखता है ।
➥ यह रक्त में ऐलकेलाइन फास्फेटेन एंजाइम को भी नियमति बनाए रखता है जिससे यह एंजाइम कैल्सियम एवं फास्फोरस को हड्डियों एवं दांतों से संचित किये रखता है ।

विटामिन ‘डी’ कैल्सियम एवं फास्फोरस के अवशोषण में सहायक होता है, जिससे हड्डियों एवं दांतों को यह खनिज पदार्थ उचित मात्रा में मिलता रहता है ।
विटामिन ‘के’ – यह रक्त स्त्राव को रोकता है ।
थायामिन – थायामिन से तंत्रिका दर्द या न्यूराइटिस को दर्द नहीं होने देता है ।
राईवोकलेविन – यह विटामिन हमरे आँख, मुहं एवं त्वचा का उचित देखभाल करता है ।
नियासिन – यह रक्त में कोलेस्ट्रोल की मात्रा को कम करता है ।
फोलिक एसिड – यह रक्त कणीयों का निर्माण करता है और उन्हें परिपक्व बनाता है ।
विटामिन ‘सी’ – यह कई प्रकार से हमें लाभान्वित करता है, जैसे –
➥ यह कोयलेजन की मजबूती एवं उसका नवनिर्माण करता है ।
➥ रक्त धमनियों की भीतरी भित्तियों पर कोलस्ट्रोल के जमाव को रोकता है ।
➥ नाक, गले एवं सांस नलिकाओं की कोशिकाओं को दृढ़ता प्रदान करता है ।
कैल्सियम – कैल्सियम हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि –
➥ यह हड्डियों को बनाने एवं दृढ़ता प्रदान करने के लिए काम करता है ।
➥ शरीर की वृधि करता है ।
➥ दाँतों का निर्माण एवं मजबूती प्रदान करता है ।
➥ आंतरिक ग्रंथियों की स्त्राव निर्माण में सहायक है ।
➥ लोहा – यह हिमोग्लोबिन का निर्माण करता है, रक्त के लाल कणियों मुख्य तत्व है जिसके अभाव में रक्त कणियां आपना जीवन निर्वाह नहीं कर पाती हैं ।

ऊर्जा  प्राप्त के लिए भोजन की आवशयकता – भोजन से जो मुख्य चीज हम प्राप्त करते हैं वह ऊर्जा  है ।जिस प्रकार मोटर कार पेट्रोल का प्रयोग करती है, उसी प्रकार हमारा शरीर ऊर्जा  के रूप में भोजन प्राप्त करता है ।इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि शरीर ऊर्जा  के लिए भोजन को जलाता है ।सुप्रवस्था में भी शरीरी के कुछ अवयव सक्रिय रहते हैं दिल धड़कता रहता है , फेफड़े सांस लेते हैं और पाचन प्रक्रिया कार्यरत रहती है ।अत: बुनियादी तौर पर कुछ ऊर्जा  की जरुरत होती है ।जितना अधिक शारीरिक परिश्रम होगा उतनी ही अधिक ऊर्जा  की और उसी अनुपात में अधिक भोजन की आवश्यकता होगी, इस ऊर्जा को मापा कैसे जाता है ? जिस प्रकार कपड़े को मीटरों में और समय को घंटों और मिनटों में मापा जाता है उसी प्रकार ऊर्जा  को कैलोरीयों में ।उसे लगभग 1500 कैलोरी बुनियादी ऊर्जा  की आवश्यकता होती है ।इसके अतिरिक्त 100 – 1300 कैलोरी ऊर्जा  की आवशयकता सामान्य शारीरिक क्रियाओं के लिए होती है ।अत: एक सामान्य व्यक्ति को 2600-2800 कैलोरी ऊर्जा की जरुरत होती है ।
मात्रक शरीर भार के आधार पर व्यक्त की अपेक्षा एक शिशु तथा छोटे बच्चों के लिए पौष्टिक भोजन की अधिक मात्राओं में आवश्यकता होती है ।वयस्कों की भांति, एक क्रियाशील और स्वस्थ बच्चे की ऊर्जा तथा ऊतकों की टूट-फूट की मरम्मत के लिए भोजन चाहिए ।इसके अतिरिक्त शरीर के अंग प्रत्यंग की निरन्तर वृधि की पूर्ति के लिए फालतू पोषण की आवश्यकता होती है ।बच्चा जैसे-जैसे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे अपनी क्रियाशीलता के क्षेत्र को बढ़ता जाता है ।यह नन्हा सा बालक जितनी देर जागता है, उतनी देर उधम मचाता रहता है ।परिणामत: उसकी ऊर्जा मांगे अत्यधिक बढ़ी-चढ़ी हो जाती है, यहां तक की मात्रक भार के हिसाब से, शिशु और टूरकते बच्चे के लिए, एक वयस्क की अपेक्षा, “ ऊर्जा उत्पादक “ तथा “शरीर रचनात्मक” कार्यों की ज्यादा जरुरत होती है ।
अनुपयुक्त भोजन का प्रभाव – यदि बच्चे को आवशयकतानुसार पोषण न मिले, तो उस पर किसी-न-किसी प्रकार के कुपोषण का दुष्परिणाम अवश्यम्भावी है ।यह दुष्परिणाम आहार में किसी-न-किसी विशेष पोषक तत्व के आभाव के कारण होता है ।शिशु का पोषण सही नहीं होने का सुराग हमें उसकी वृधि गति में कमी हो जाने से मिलता है तथा कभी-कभी तो उसकी वृधि रूक जाती है ।यह शिशु कुपोषण के प्रारंभिक लक्षण होते हैं ।

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