बंगाल से शुरू होकर धार्मिक व सामाजिक सुधार आन्दोलन भारत के अन्य भागों में भी फैल गए| ब्रहम समाज से प्रेरित होकर 1864 ई. में मद्रास में वेद समाज की स्थापना की गयी| इसने जातिगत भेदभाव का विरोध किया और विधवा पुनर्विवाह व स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित किया| ब्रहम समाज के समान,वेद समाज ने भी अंधविश्वासों व हिन्दू धर्म के रूढ़िवादी रीति-रिवाजों का विरोध किया और एक परमसत्ता में विश्वास व्यक्त किया| वेद समाज के सबसे प्रमुख नेता चेम्बेती श्रीधरालू नायडू थे| उन्होंने ब्रहम समाज की पुस्तकों का तमिल और तेलगू भाषा में अनुवाद किया| बाद में आंध्र प्रदेश,कर्नाटक व तमिलनाडु के कुछ शहरों में ब्रहम समाज की शाखाएं स्थापित हुईं और इसके तुरंत बाद प्रार्थना समाज की भी शाखाएं स्थापित हुईं| इन दोनों समाजों ने मिलकर सामाजिक व धार्मिक सुधारों को प्रोत्साहित करने का कार्य किया|
दक्षिण भारत के सुधार आंदोलनों के सबसे प्रमुख नेता कन्दुकुरी वीरेसलिंगम थे| इनका जन्म 1848 ई. में आंध्र प्रदेश के एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था| उन्होंने ब्रहम समाज,विशेष रूप से केशवचन्द्र सेन,के विचारों से प्रभावित होकर स्वयं को सामाजिक सुधारों के प्रति समर्पित कर दिया| 1876 ई. में उन्होंने एक तेलगू पत्र निकाला जो लगभग पूरी तरह से सामाजिक सुधारों के प्रति समर्पित था| उनका सबसे बड़ा योगदान महिलाओं की मुक्ति के क्षेत्र में था जिसमें स्त्री शिक्षा और विधवा पुनर्विवाह भी शामिल था|
केरल में नारायण गुरु द्वारा विशेष रूप से समाज के दलितों व शोषितों के उत्थान के लिए एक आन्दोलन शुरू किया गया| नारायण गुरु का जन्म 1854ई. में एक एजावा परिवार में हुआ था| एजावा व कुछ अन्य जातियों को केरल में तथाकथित हिन्दु उच्च जातियों द्वारा अछूत माना जाता था| नारायण गुरु ने संस्कृत शिक्षा प्राप्त की और स्वयं के जीवन को एजावा व अन्य दलित लोगों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया| उन्होंने ऐसे मंदिरों की स्थापना की जो जिनमें भगवान व उनकी मूर्तियों के लिए कोई स्थान नहीं था| इन्होनें प्रथम ऐसे मंदिर की स्थापना पास में रहने वाली नदी से पत्थर निकाल कर की गयी थी| इस पत्थर पर निम्नलिखित शब्द लिखे थे-“यह एक ऐसा स्थान है जहाँ सभी लोग जातिगत भेदभाव व धार्मिक शत्रुता के बिना भाईचारे के साथ रहते है| नारायण गुरु ने 1903 ई. में नारायण धर्म परिपालन योगम की स्थापना की, जो सामाजिक सुधार के लिए एक महत्वपूर्ण संगठन बन गया| उन्होंने सभी के लिए ‘एक जाति,एक धर्म और एक ईश्वर’ की वकालत की|
दक्षिण भारत के अनेक समाज सुधारकों ने स्वयं को हिन्दू मंदिरों से सम्बंधित सुधारों के साथ सम्बद्ध किया| इसी क्रम में उन्होंने हिन्दू मंदिरों में प्रचलित देवदासी प्रथा के उन्मूलन की वकालत की| उन्होंने यह मांग भी की कि मंदिरों की संपत्ति पर पुजारियों का अधिकार न होकर जनता का अधिकार होना चाहिए| बहुत से मंदिरों में तथाकथित निम्न जातियों को प्रवेश का अधिकार नहीं था,यहाँ तक कि मंदिरों से सटी हुई सड़कें भी उनके लिए प्रतिबंधित थीं| सुधारकों ने मंदिर-प्रवेश व मंदिरों से जुड़ी अन्य अनेक कुप्रथाओं को समाप्त करने के लिए सशक्त आन्दोलन चलाया|
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