शिक्षा : "शैक्षिक प्रणाली" की अजीबो गरीब दास्तान., - Study Search Point

निरंतर कर्म और प्रयास ही सफलता की कुंजी हैं।

शिक्षा : "शैक्षिक प्रणाली" की अजीबो गरीब दास्तान.,

Share This
शिक्षा : "शैक्षिक प्रणाली" की अजीबो गरीब दास्तान -
देश में शिक्षा के गिरते स्तर एवं दिन प्रतिदिन शिक्षा के लिए आने वाली नई-नई प्रणालियों के साथ, जो शिक्षा के प्रति उदासीनता और शिक्षा ग्रहण करने के बाद बढ़ती हुई बेगारी का जो आलम है, जिससे समाज के नैतिक मूल्यों का पतन होता जा रहा है, उसके लिये किसे जिम्मेदार ठहराया जाय? यह आम युवकों के लिये वर्तमान के इस प्रतिस्पर्धा के समय में एक परेशानी का सबसे बड़ा सबब बनता जा रहा है, शिक्षा प्रणाली के लिये ना ही कोई ठोस और कारगर नीति है, ना ही कोई स्पष्ट नियमावली।  ना ही  इसे लेकर सम्बन्धित अधिकारियों, माननीय मंत्रियों,  और सरकरों के पास कोई साफ स्वच्छ दिशा..!!
प्रतिवर्ष स्नातक, स्नाकोत्तर पूर्ण करने के बाद एक शिक्षक बनने के लिये जो डिग्री के तौर पर सरकारों द्वारा बी.टी.सी. , बी.पी.एड, , सी.पी.एड. , उसके बाद बी.एड, और अब एक दो सालों से डी.एल.एड, (बी टी सी के स्थान पर) , के साथ शिक्षक पात्रता परीक्षा (TET) को पास करने की अनिवार्यता। ना जाने सरकारों के द्वारा कितने कोर्स करवाये जा रहे और आगे कितने कोर्स करवाये एवं बनाये जायेंगे, इसके पश्चात भी कोई सुनिश्चित रूप से रोजगार के अवसर नहीं के बराबर या कोई भी रोजगार उपलब्ध कराने में सरकारें नाकाम ही साबित हुई है, यदि कुछ मात्रा में विज्ञप्ति निकाली भी जाती है तो उनकी परीक्षा में सालो लग जाते है, या फिर पेपर लीक होना तो आम बातें है। इसके लिए किसे जिम्म्मेदार ठहरया जाय राज्यों की सरकारों को? या इस प्रणाली को चलाने वाले अधिकारीयों को ? या फिर हम स्वयं ? क्योकि शायद हम इस तरफ सोचते ही नहीं है, हम इन सब से अपना कोई सरोकार ही नहीं समझते। इस संदर्भ में तो हम स्वयं को ठगा सा ही समझते है, क्योकि सरकारें पर्याप्त मात्रा में युवाओ को रोजगार को उपलब्ध करने में नाकामयाब हुई है। वर्तमान परिपेक्ष्य में तो बस सिर्फ बेगारी की ही शिक्षा मिली है...?
एक व्यक्ति को शिक्षा ग्रहण करने के उपरान्त उसकी जो आकांक्षा होती है, वह है एक आत्मसम्मान से भरा रोजगार पाना, जो उसे पूर्णरूपेण नहीं मिल पाई है, ना ही किसी भी सरकारों के द्वारा इसे सुनिश्चित ही किया गया है, जिससे तंग आकर युवा गलत कदम उठाने (आत्महत्या) को विवश तक हो उठे हैं। पढ़ लिखकर एक युवा को बेगारी के वक्त में जो उन पर गुजरती है, उसकी व्यथा से किसी का कोई सरोकार नही है। बस है तो महज चुनावी वादों और अपनी राजनीतिक चकाचौंध से, ऐसा प्रतीत होता है कि अब बस बेगारी की शिक्षा के सिवा युवाओं ने अपने जीवन में क्या पाया ?
जब से सी.बी.एस.ई. अंग्रेजी पाठ्यक्रम लागू हुआ तब से शिक्षा का स्तर हिंदी भाषी विद्यार्थियों के लिए निरस तो हो ही गया है और कुछ हद तक उद्देश्यहीन भी, क्योकि देश में अंग्रेजी की दिन प्रतिदिन वर्चस्व बढ़ता जा रहा है और वही हिंदी पाठ्यक्रम की शिक्षा का स्तर घटता जा रहा है। अंग्रेजी शिक्षा के हम खिलाफ नहीं पर, अंग्रेजी शिक्षा भी सभी स्तर पर सामान रूप से प्रभावी होनी चाहिए, और हिंदी माध्यम के छात्रों के साथ इसे लेकर दोहरा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। जो पहले का पाठ्यक्रम और मैरिट प्रणाली वह आज की तुलना में बहुत ही कठिन थी। पर जो आजकल "ग्रेडिंग प्रणाली" या "मैरिट प्रणाली" है जिसके आधार पर योग्यता के अनुसार किसी भी पद पर व्यक्ति विशेष को नियुक्त किया जाता है, इस सम्बन्धित प्रणाली पर सवाल उठना भी लाजमी है, शिक्षा की इस अनोखी प्रणाली के नीचे दबे युवा को बेगारी के वक्त में बार-बार इन प्रश्नों पर सोचना चाहिए...? पहले एक बच्चा जहाँ 70% से 75% तक अधिकतम अंक प्राप्त करता था, वही आज 90 से 98% तक एक बच्चा अंक प्राप्त कर रहा है 20% से 28% अधिक अंक मतलब शत् -प्रतिशत अंक प्राप्त कर ले रहा है। मैरिट के आधार पर नियुक्ति के वक्त पहले के छात्रों पर आज के छात्र कही अधिक भारी पढ़ रहे हैं, साथ ही बाहरी संस्थानों से शिक्षा ग्रहण कर अच्छी मैरिट (अंक) प्राप्त कर पहले के शिक्षित छात्र के लिये आज यह एक समस्या का कारण बन रही है। पहले कि शिक्षा प्रणाली  और आज की शिक्षा प्रणाली में जमीन आसमान का अंतर है साथ ही उन संसाधनों का भी अंतर है जो पहले उपलब्ध नहीं थे। तो फिर समनता कहा पर है इस मैरिट प्रणाली में।
इस ओर किसी का भी ध्यान नहीं है ना ही इस बारे में कोई सोच ही रखता है, ऐसा लगता है कि आज का युवा यही सोच रहा है कि जो भाग्य में होगा वही होगा, लेकिन हम भूल जाते है कि कर्म और प्रयास ही किसी भी सफलता के अस्त्र है। कोई भी इस ओर सोचता तक नहीं है जो कि बहुत ही दु:खद है..!!
आज की शिक्षा प्रणाली तो ऐसी बना दी गयी है कि जिसे बयाँ करते हुये भी दु:ख होता है। अगर एक विधार्थी से प्रश्न पूछा जाये कि किन्ही दूध देने वाले 2 जानवरों के नाम बताइये ? इस पर अगर बच्चों ने गाय, भैंस के बदले कुत्ता, बिल्ली भी लिख देता है तो पूरे नम्बर न सही पर कुछ नंबर अवश्य ही दे दिया जाते है, क्योकि बच्चे ने कुछ तो लिखा है अर्थात बच्चे को कुछ तो आता है, चाहे वह सही उत्तर ना  ही सही...?...वाह शिक्षा की क्या गजब की और उत्क़ष्ट प्रणाली है ना ...?
एक तरफ सरकारें बड़े बड़े दावे और वादे तो करते हैं कि हम शिक्षा के लिये ये करेंगे वो करेंगे न जाने क्या काया करेंगे? पर किया कुछ नहीं जाता है, धीरे धीरे शिक्षा को निजीकरण (प्राइवेट) की ओर ले जाया जा रहा है जिससे कि कुछ लोगों (प्राइवेट) को मोटा मुनाफा पहुँच रहा है। हम कोई निजीकरण के विरोधी नहीं है, पर इससे एक सामान्य छात्र आज की इस जीवन की दौड़ में पीछे रह कर विकास में पिछड़ जाता है, उसके पास इन गैर सरकारी सस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने के लिए आर्थिक स्थिति अपेक्षाकृत ना के बराबर है। जिस कारण शिक्षा का स्तर दिन प्रतिदिन गिरता ही जा रहा है। अगर इस ओर सरकारों के द्वारा कोई ठोस कदम ना उठाया गया तो शिक्षा का स्तर प्राथमिक स्तर, माध्यमिक स्तर के साथ साथ उच्च स्तर पर भी काफी गर्त में चला जायेगा जिससे उभर पाना सरल नहीं होगा !!
🤔 लेख स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं, किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचना इस लेख का उद्देश्य नहीं हैं।
लेख साभार -  दिनेश चंद्र भट्ट (उत्तराखंड)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Pages