भारत का इतिहास : पाषाण काल से मध्यकालीन भारत, (संक्षिप्त सार) - Study Search Point

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भारत का इतिहास : पाषाण काल से मध्यकालीन भारत, (संक्षिप्त सार)

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भारत का इतिहास पाषाण काल : -
समस्त इतिहास को तीन कालों में विभाजित किया जा एकता है-
प्राक्इतिहास या प्रागैतिहासिक काल (Prehistoric Age)
आद्य ऐतिहासिक काल (Proto-historic Age)
ऐतिहासिक काल (Historic Age)

भारत की आदिम (प्रारंभिक) जातियाँ -
प्रारम्भिक काल में भारत में कितने प्रकार की जातियां निवास करती थीं, उनमें आपसी सम्बन्घ किस स्तर के थे, आदि प्रश्न अत्यन्त ही विवादित हैं। फिर भी नवीनतम सर्वाधिक मान्यताओं में 'डॉ. बी.एस. गुहा' का मत है। भारतवर्ष की प्रारम्भिक जातियों को छः भागों में विभक्त किया जा सकता है। -
१- नीग्रिटों २- प्रोटो-ऑस्ट्रेलियाईड ३- मंगोलायड ४ भूमध्य सागरीय ५- पश्चिमी ब्रेकी सेफल ६- नॉर्डिक

सिंधु घाटी सभ्यता -
आज से लगभग 70 वर्ष पूर्व पाकिस्तान के 'पश्चिमी पंजाब प्रांत' के 'माण्टगोमरी ज़िले' में स्थित 'हरियाणा' के निवासियों को शायद इस बात का किंचित्मात्र भी आभास नहीं था कि वे अपने आस-पास की ज़मीन में दबी जिन ईटों का प्रयोग इतने धड़ल्ले से अपने मकानों का निर्माण में कर रहे हैं, वह कोई साधारण ईटें नहीं, बल्कि लगभग 5,000 वर्ष पुरानी और पूरी तरह विकसित सभ्यता के अवशेष हैं। इसका आभास उन्हें तब हुआ जब 1856 ई. में 'जॉन विलियम ब्रन्टम' ने कराची से लाहौर तक रेलवे लाइन बिछवाने हेतु ईटों की आपूर्ति के इन खण्डहरों की खुदाई प्रारम्भ करवायी। खुदाई के दौरान ही इस सभ्यता के प्रथम अवशेष प्राप्त हुए, जिसे इस सभ्यता का नाम ‘हड़प्पा सभ्यता‘ का नाम दिया गया।

हड़प्पा लिपि -
हड़प्पा लिपि का सर्वाधिक पुराना नमूना 1853 ई. में मिला था पर स्पष्टतः यह लिपि 1923 तक प्रकाश में आई। सिंधु लिपि में लगभग 64 मूल चिह्न एवं 205 से 400 तक अक्षर हैं जो सेलखड़ी की आयताकार मुहरों, तांबे की गुटिकाओं आदि पर मिलते हैं। यह लिपि चित्रात्मक थी। यह लिपि अभी तक गढ़ी नहीं जा सकी है। इस लिपि में प्राप्त सबसे बड़े लेख में क़रीब 17 चिह्न हैं। कालीबंगा के उत्खनन से प्राप्त मिट्टी के ठीकरों पर उत्कीर्ण चिह्न अपने पार्श्ववर्ती दाहिने चिह्न को काटते हैं। इसी आधार पर 'ब्रजवासी लाल' ने यह निष्कर्ष निकाला है - 'सैंधव लिपि दाहिनी ओर से बायीं ओर को लिखी जाती थी।'

हड़प्पा सभ्यता की मृण्मूर्तियां -
हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त मृण्मूर्तियों का निर्माण मिट्टी से किया गया है। इन मृण्मूर्तियों पर मानव के अतिरिक्त पशु पक्षियों में बैल, भैंसा, बकरा, बाघ, सुअर, गैंडा, भालू, बन्दर, मोर, तोता, बत्तख़ एवं कबूतर की मृणमूर्तियां मिली है। मानव मृण्मूर्तियां ठोस है पर पशुओं की खोखली। नर एवं नारी मृण्मूर्तियां में सर्वाधिक नारी मृण्मूर्तियां ठोस हैं, पर पशुओं की खोखली। नर एवं नारी- मृण्मूर्तियां में सर्वाधिक नारी मृण्मूर्तियां मिली हैं।

हड़प्पा सभ्यता की नगर योजना -
हड़प्पा संस्कृति की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी- इसकी नगर योजना। इस सभ्यता के महत्त्वपूर्ण स्थलों के नगर निर्माण में समरूपता थी। नगरों के भवनो के बारे में विशिष्ट बात यह थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे।

हड़प्पा समाज और संस्कृति -
हडप्प्पा संस्कृति की व्यापकता एवं विकास को देखने से ऐसा लगता है कि यह सभ्यता किसी केन्द्रीय शक्ति से संचालित होती थी। वैसे यह प्रश्न अभी विवाद का विषय बना हुआ है, फिर भी चूंकि हडप्पावासी वाणिज्य की ओर अधिक आकर्षित थे, इसलिए ऐसा माना जाता है कि सम्भवतः हड़प्पा सभ्यता का शासन वणिक वर्ग के हाथ में था। ह्नीलर ने सिंधु प्रदेश के लोगों के शासन को 'मध्यम वर्गीय जनतंन्त्रात्मक शासन' कहा और उसमें धर्म की महत्ता को स्वीकार किया। स्टुअर्ट पिग्गॉट महोदय ने कहा 'मोहनजोदाड़ों का शासन राजतन्त्रात्मक न होकर जनतंत्रात्मक' था। मैके के अनुसार ‘मोहनजोदड़ों का शासन एक प्रतिनिधि शासक के हाथों था।

प्रागैतिहासिक काल -
भारत का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से आरम्भ होता है। 3000 ई. पूर्व तथा 1500 ई. पूर्व के बीच सिंधु घाटी में एक उन्नत सभ्यता वर्तमान थी, जिसके अवशेष मोहन जोदड़ो (मुअन-जो-दाड़ो) और हड़प्पा में मिले हैं। विश्वास किया जाता है कि भारत में आर्यों का प्रवेश बाद में हुआ। आर्यों ने पाया कि इस देश में उनसे पूर्व के जो लोग निवास कर रहे थे, उनकी सभ्यता यदि उनसे श्रेष्ठ नहीं तो किसी रीति से निकृष्ट भी नहीं थी। आर्यों से पूर्व के लोगों में सबसे बड़ा वर्ग द्रविड़ों का था।

महाजनपद -
प्राचीन भारतीयों ने कोई तिथि क्रमानुसार इतिहास नहीं सुरक्षित रखा है। सबसे प्राचीन सुनिश्चित तिथि जो हमें ज्ञात है, 326 ई. पू. है, जब मक़दूनिया के राजा सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया। इस तिथि से पहले की घटनाओं का तारतम्य जोड़ कर तथा साहित्य में सुरक्षित ऐतिहासिक अनुश्रुतियों का उपयोग करके भारत का इतिहास सातवीं शताब्दी ई. पू. तक पहुँच जाता है। इस काल में भारत क़ाबुल की घाटी से लेकर गोदावरी तक षोडश जनपदों में विभाजित था।
प्राचीन भारत -
1200 ई.पू से 240 ई. तक का भारतीय इतिहास, प्राचीन भारत का इतिहास कहलाता है। इसके बाद के भारत को मध्यकालीन भारत कहते हैं जिसमें मुख्यतः मुस्लिम शासकों का प्रभुत्व रहा था।
मौर्य और शुंग, शक, कुषाण और सातवाहन, गुप्त

मध्यकालीन भारत -
तीन साम्राज्यों का युग (8वीं - 10वीं शताब्दी)
सात सौ पचास और एक हज़ार ईस्वी के बीच उत्तर तथा दक्षिण भारत में कई शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय हुआ। नौंवीं शताब्दी तक पूर्वी और उत्तरी भारत में पाल साम्राज्य तथा दसवीं शताब्दी तक पश्चिमी तथा उत्तरी भारत में प्रतिहार साम्राज्य शक्तिशाली बने रहे। राष्ट्रकूटों का प्रभाव दक्कन में तो था ही, कई बार उन्होंने उत्तरी और दक्षिण भारत में भी अपना प्रभुत्व क़ायम किया। यद्यपि ये तीनों साम्राज्य आपस में लड़ते रहते थे तथापि इन्होंने एक बड़े भू-भाग में स्थिरता क़ायम रखी और साहित्य तथा कलाओं को प्रोत्साहित किया।

इस्लाम धर्म -
इस बीच 712 ई. में भारत में इस्लाम का प्रवेश हो चुका था। मुहम्मद-इब्न-क़ासिम के नेतृत्व में मुसलमान अरबों ने सिंध पर हमला कर दिया और वहाँ के ब्राह्मण राजा दाहिर को हरा दिया। इस तरह भारत की भूमि पर पहली बार इस्लाम के पैर जम गये और बाद की शताब्दियों के हिन्दू राजा उसे फिर हटा नहीं सके। परन्तु सिंध पर अरबों का शासन वास्तव में निर्बल था और 1176 ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी ने उसे आसानी से उखाड़ दिया। इससे पूर्व सुबुक्तगीन के नेतृत्व में मुसलमानों ने हमले करके पंजाब छीन लिया था और ग़ज़नी के सुल्तान महमूद ने 997 से 1030 ई. के बीच भारत पर सत्रह हमले किये और हिन्दू राजाओं की शक्ति कुचल डाली, फिर भी हिन्दू राजाओं ने मुसलमानी आक्रमण का जिस अनवरत रीति से प्रबल विरोध किया, उसका महत्त्व कम करके नहीं आंकना चाहिए।

भारत की संस्कृति -
इस काल में भारतीय समाज में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इनमें से एक यह था कि विशिष्ट वर्ग के लोगों की शक्ति बहुत बढ़ी जिन्हें 'सामंत', 'रानक' अथवा 'रौत्त' (राजपूत) आदि पुकारा जाता था। इस काल में भारतीय दस्तकारी तथा खनन कार्य उच्च स्तर का बना रहा तथा कृषि भी उन्नतिशील रही। भारत आने वाले कई अरब यात्रियों ने यहाँ की ज़मीन की उर्वरता और भारतीय किसानों की कुशलता की चर्चा की है। पहले से चली आ रही वर्ण व्यवस्था इस युग में भी क़ायम रही। स्मृतियों के लेखकों ने ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर तो कहा ही, शूद्रों की सामाजिक और धार्मिक अयोग्यता को उचित ठहराने में तो वे पिछले लेखकों से कहीं आगे निकल गए।

दिल्ली सल्तनत -
दिल्ली सल्तनत की स्थापना भारतीय इतिहास में युगान्तकारी घटना है। शासन का यह नवीन स्वरूप भारत की पूर्ववर्ती राजव्यवस्थाओं से भिन्न था। इस काल के शासक एवं उनकी प्रशासनिक व्यवस्था एक ऐसे धर्म पर आधारित थी, जो कि साधारण धर्म से भिन्न था। शासकों द्वारा सत्ता के अभूतपूर्व केन्द्रीकरण और कृषक वर्ग के शोषण का भारतीय इतिहास में कोई उदाहरण नहीं मिलता है। दिल्ली सल्तनत का काल 1206 ई. से प्रारम्भ होकर 1562 ई. तक रहा। 320 वर्षों के इस लम्बे काल में भारत में मुस्लिमों का शासन व्याप्त रहा। यह काल स्थापत्य एवं वास्तुकला के लिये भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

मामलूक अथवा ग़ुलाम वंश -
ग़ुलाम वंश दिल्ली में कुतुबद्दीन ऐबक द्वारा 1206 ई. में स्थापित किया गया था। यह वंश 1290 ई. तक शासन करता रहा। इसका नाम ग़ुलाम वंश इस कारण पड़ा कि इसका संस्थापक और उसके इल्तुतमिश और बलबन जैसे महान् उत्तराधिकारी प्रारम्भ में ग़ुलाम अथवा दास थे और बाद में वे दिल्ली का सिंहासन प्राप्त करने में समर्थ हुए।

इल्तुतमिश/अल्तमश -
इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत में ग़ुलाम वंश का एक प्रमुख शासक था। वंश के संस्थापक ऐबक के बाद वो उन शासकों में से था जिससे दिल्ली सल्तनत की नींव मज़बूत हुई। वह ऐबक का दामाद भी था।

रज़िया सुल्तान -
रज़िया का पूरा नाम-रज़िया अल्-दीन (1205 – 1240), सुल्तान जलालत उद-दीन रज़िया था। वह इल्तुतमिश की पुत्री तथा भारत की पहली मुस्लिम शासिका थी।

बलबन का युग -
ग़यासुद्दीन बलबन (1266-1286 ई.) इल्बारि जाति का व्यक्ति था, जिसने एक नये राजवंश ‘बलबनी वंश’ की स्थापना की थी। ग़यासुद्दीन बलबन ग़ुलाम वंश का नवाँ सुल्तान था।

ख़िलजी वंश (1290-1320 ई.) -
ख़िलजी कौन थे? इस विषय में पर्याप्त विवाद है। इतिहासकार 'निज़ामुद्दीन अहमद' ने ख़िलजी को चंगेज़ ख़ाँ का दामाद और कुलीन ख़ाँ का वंशज, 'बरनी' ने उसे तुर्कों से अलग एवं 'फ़खरुद्दीन' ने ख़िलजियों को तुर्कों की 64 जातियों में से एक बताया है। फ़खरुद्दीन के मत का अधिकांश विद्वानों ने समर्थन किया है। चूंकि भारत आने से पूर्व ही यह जाति अफ़ग़ानिस्तान के हेलमन्द नदी के तटीय क्षेत्रों के उन भागों में रहती थी, जिसे ख़िलजी के नाम से जाना जाता था। सम्भवतः इसीलिए इस जाति को ख़िलजी कहा गया। मामलूक अथवा ग़ुलाम वंश के अन्तिम सुल्तान शमसुद्दीन क्यूमर्स की हत्या के बाद ही जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी सिंहासन पर बैठा था, इसलिए इतिहास में ख़िलजी वंश की स्थापना को ख़िलजी क्रांति के नाम से भी जाना जाता है।

तुग़लक़ वंश (1320-1414) -
ग़यासुद्दीन ने एक नये वंश अर्थात तुग़लक़ वंश की स्थापना की, जिसने 1412 तक राज किया। इस वंश में तीन योग्य शासक हुए। ग़यासुद्दीन, उसका पुत्र मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1324-51) और उसका उत्तराधिकारी फ़िरोज शाह तुग़लक़ (1351-87)।

मुग़ल काल -
दिल्ली की सल्तनत वास्तव में कमज़ोर थी, क्योंकि सुल्तानों ने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का हृदय जीतने का कोई प्रयास नहीं किया। वे धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त कट्टर थे और उन्होंने बलपूर्वक हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास किया। इससे हिन्दू प्रजा उनसे कोई सहानुभूति नहीं रखती थी। इसक फलस्वरूप 1526 ई. में बाबर ने आसानी से दिल्ली की सल्तनत को उखाड़ फैंका। उसने पानीपत की पहली लड़ाई में अन्तिम सुल्तान इब्राहीम लोदी को हरा दिया और मुग़ल वंश की प्रतिष्ठित किया, जिसने 1526 से 1858 ई. तक भारत पर शासन किया। तीसरा मुग़ल बादशाह अकबर असाधारण रूप से योग्य और दूरदर्शी शासक था। उसने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का हृदय जीतने की कोशिश की और विशेष रूप से युद्ध प्रिय राजपूत राजाओं को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया।

बाबर (1526-1530) -
मुग़ल वंश का संस्थापक "ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर" था। बाबर का पिता 'उमर शेख़ मिर्ज़ा', 'फ़रग़ना' का शासक था, जिसकी मृत्यु के बाद बाबर राज्य का वास्तविक अधिकारी बना।

हुमायूँ (1530-1540 और 1555-1556) -
'नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ' का जन्म बाबर की पत्नी ‘माहम बेगम’ के गर्भ से 6 मार्च, 1508 ई. को काबुल में हुआ था। बाबर के 4 पुत्रों- हुमायूँ, कामरान, अस्करी और हिन्दाल में हुमायूँ सबसे बड़ा था। बाबर ने उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था।

शेरशाह सूरी -
शेरशाह सूरी के बचपन का नाम 'फ़रीद ख़ाँ' था। वह वैजवाड़ा (होशियारपुर 1472 ई.) में अपने पिता 'हसन ख़ाँ' की अफ़ग़ान पत्‍नी से उत्पन्न था। उसका पिता हसन, बिहार के सासाराम का ज़मींदार था।

अकबर (1556 - 1605) -
अकबर महान् ने धार्मिक सहिष्णुता तथा मेल-मिलाप की नीति बरती, हिन्दुओं पर से जज़िया उठा लिया और राज्य के ऊँचे पदों पर बिना भेदभाव के सिर्फ़ योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ कीं।

जहाँगीर (1605 - 1627) -
'नूरुद्दीन सलीम जहाँगीर' का जन्म फ़तेहपुर सीकरी में स्थित ‘शेख़ सलीम चिश्ती’ की कुटिया में राजा भारमल की बेटी ‘मरीयम-उज़्-ज़मानी’ के गर्भ से 30 अगस्त, 1569 ई. को हुआ था। अकबर सलीम को ‘शेख़ू बाबा’ कहा करता था। सलीम का मुख्य शिक्षक अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना था।

शाहजहाँ (1627 - 1658) -
शाहजहाँ का जन्म जोधपुर के शासक राजा उदयसिंह की पुत्री 'जगत गोसाई' (जोधाबाई) के गर्भ से 5 जनवरी, 1592 ई. को लाहौर में हुआ था। उसका बचपन का नाम ख़ुर्रम था। ख़ुर्रम जहाँगीर का छोटा पुत्र था, जो छल−बल से अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ था।

औरंगज़ेब (1658 - 1707) -
'मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब' का जन्म 4 नवम्बर, 1618 ई. में गुजरात के ‘दोहद’ नामक स्थान पर मुमताज़ के गर्भ से हुआ था। औरंगज़ेब के बचपन का अधिकांश समय नूरजहाँ के पास बीता था।

बहादुर शाह ज़फ़र (1837- 1858) -
बहादुर शाह ज़फ़र का जन्म 24 अक्तूबर सन् 1775 ई. को दिल्ली में हुआ था। बहादुर शाह ज़फ़र मुग़ल साम्राज्य के अंतिम बादशाह थे। इनका शासनकाल 1837-58 तक था। बहादुर शाह ज़फ़र एक कवि, संगीतकार व खुशनवीस थे और राजनीतिक नेता के बजाय सौंदर्यानुरागी व्यक्ति अधिक थे।

आधुनिक काल : -
मराठा साम्राज्य
राजपूतों और मुग़लों के योग से उसने अपना साम्राज्य कन्दहार से आसाम की सीमा तक तथा हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में अहमदनगर तक विस्तृत कर दिया। उसके पुत्र जहाँगीर जहाँ पौत्र शाहजहाँ के राज्यकाल में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार जारी रहा। शाहजहाँ ने ताजमहल का निर्माण कराया, परन्तु कन्दहार उसके हाथ से निकल गया। अकबर के प्रपौत्र औरंगज़ेब के राज्यकाल में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार अपने चरम शिखर पर पहुँच गया और कुछ काल के लिए सारा भारत उसके अंतर्गत हो गया। परन्तु औरंगज़ेब ने जान-बूझकर अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति त्याग दी और हिन्दुओं को अपने विरुद्ध कर लिया। उसने हिन्दुस्तान का शासन सिर्फ़ मुसलमानों के हित में चलाने की कोशिश की और हिन्दुओं को ज़बर्दस्ती मुसलमान बनाने का असफल प्रयास किया। इससे राजपूताना, बुंदेलखण्ड तथा पंजाब के हिन्दू उसके विरुद्ध उठ खड़े हुए।

ईस्ट इंडिया कम्पनी : -
अठारहवीं शताब्दी के शुरू में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बम्बई (मुम्बई), मद्रास (चेन्नई) तथा कलकत्ता (कोलकाता) पर क़ब्ज़ा कर लिया। उधर फ्राँसीसियों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने माहे, पांडिचेरी तथा चंद्रानगर पर क़ब्ज़ा कर लिया। उन्हें अपनी सेनाओं में भारतीय सिपाहियों को भरती करने की भी इजाज़त मिल गयी। वे इन भारतीय सिपाहियों का उपयोग न केवल अपनी आपसी लड़ाइयों में करते थे बल्कि इस देश के राजाओं के विरुद्ध भी करते थे। इन राजाओं की आपसी प्रतिद्वन्द्विता और कमज़ोरी ने इनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को जाग्रत कर दिया और उन्होंने कुछ देशी राजाओं के विरुद्ध दूसरे देशी राजाओं से संधियाँ कर लीं। 1744-49 ई. में मुग़ल बादशाह की प्रभुसत्ता की पूर्ण उपेक्षा करके उन्होंने आपस में कर्नाटक की दूसरी लड़ाई छेड़ी।
कम्पनी के शासन काल में भारत का प्रशासन एक के बाद एक बाईस गवर्नर-जनरलों के हाथों में रहा। इस काल के भारतीय इतिहास की सबसे उल्लेखनीय घटना यह है कि कम्पनी युद्ध तथा कूटनीति के द्वारा भारत में अपने साम्राज्य का उत्तरोत्तर विस्तार करती रही। मैसूर के साथ चार लड़ाइयाँ, मराठों के साथ तीन, बर्मा (म्यांमार) तथा सिखों के साथ दो-दो लड़ाइयाँ तथा सिंध के अमीरों, गोरखों तथा अफ़ग़ानिस्तान के साथ एक-एक लड़ाई छेड़ी गयी। इनमें से प्रत्येक लड़ाई में कम्पनी को एक या दूसरे देशी राजा की मदद मिली।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम : -
इस काल में सती प्रथा का अन्त कर देने के समान कुछ सामाजिक सुधार के भी कार्य किये गये। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा के विरुद्ध निरन्तर आन्दोलन चलाया। उनके पूर्ण और निरन्तर समर्थन का ही प्रभाव था, जिसके कारण लॉर्ड विलियम बैंटिक 1829 में सती प्रथा को बन्द कराने में समर्थ हो सका। अंग्रेज़ी के माध्यम से पश्चिम शिक्षा के प्रसार की दिशा में क़दम उठाये गये, अंग्रेज़ी देश की राजभाषा बना दी गयी, सारे देश में समान ज़ाब्ता दीवानी और ज़ाब्ता फ़ौजदारी क़ानून लागू कर दिया गया, परन्तु शासन स्वेच्छाचारी बना रहा और वह पूरी तरह अंग्रेज़ों के हाथों में रहा।

असहयोग आंदोलन : -
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कुछ सुधारों से पुराने कांग्रेसजन संतुष्ट हो गये, परन्तु नव युवकों का दल, जिसे मोहनदास करमचंद गाँधी के रूप में एक नया नेता मिल गया था, संतुष्ट नहीं हुआ। इन सुधारों के अंतर्गत केन्द्रीय कार्यपालिका को केन्द्रीय विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं बनाया गया था और वाइसराय को बहुत अधिक अधिकार प्रदान कर दिये गये थे। अतएव उसने इन सुधारों को अस्वीकृत कर दिया। उसके मन में जो आशंकाएँ थीं, वे ग़लत नहीं थी, यह 1919 के एक्ट के बाद ही पास किये गये रौलट एक्ट जैसे दमनकारी क़ानूनों तथा जलियाँवाला बाग़ हत्याकांण्ड जैसे दमनमूलक कार्यों से सिद्ध हो गया। जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को 'रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी' की लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में बैठक में ऊधमसिंह ने माइकल ओ डायर पर गोलियाँ चला दीं। जिससे उसकी तुरन्त मौत हो गई। चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह जैसे महान् क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश शासन को ऐसे घाव दिये जिन्हें ब्रिटिश शासक बहुत दिनों तक नहीं भूल पाए। कांग्रेस ने 1920 ई. में अपने नागपुर अधिवेशन में अपना ध्येय पूर्ण स्वराज्य की स्थापना घोषित कर दी और अपनी माँगों को मनवाने के लिए उसने अहिंसक असहयोंग की नीति अपनायी। चूंकि ब्रिटिश सरकार ने उसकी माँगें स्वीकार नहीं की और दमनकारी नीति के द्वारा वह असहयोग आंदोलन को दबा देने में सफल हो गयी। इसलिए कांग्रेस ने दिसम्बर 1929 ई. में लाहौर अधिवेशन में अपना लक्ष्य पूर्ण स्वीधीनता निश्चित किया और अपनी माँग का मनवाने के लिए उसने 1930 में नमक सत्याग्रह आंदोलन शुरू कर दिया।

भारत का विभाजन : -
कुछ ब्रिटिश अफ़सरों ने भारत को स्वाधीन होने से रोकने के लिए अंतिम दुर्राभ संधि की और मुसलमानों के लिये भारत विभाजन करके पाकिस्तान की स्थापना की माँग का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसके फलस्वरूप अगस्त 1946 ई. में सारे देश में भयानक सम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गये, जिन्हें वाइसराय लॉर्ड वेवेल अपने समस्त फ़ौजी अनुभवों तथा साधनों बावजूद रोकन में असफल रहा। यह अनुभव किया गया कि भारत का प्रशासन ऐसी सरकार के द्वारा चलाना सम्भव नहीं है। जिसका नियंत्रण मुख्य रूप से अंग्रेजों के हाथों में हो। अतएव सितम्बर 1946 ई. में लॉर्ड वेवेल ने पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में भारतीय नेताओं की एक अंतरिम सरकार गठित की। ब्रिटिश अधिकारियों की कृपापात्र होने के कारण मुस्लिम लीग के दिमाग़ काफ़ी ऊँचे हो गये थे। उसने पहले तो एक महीने तक अंतरिम सरकार से अपने को अलग रखा, इसके बाद वह भी उसमें सम्मिलित हो गयी।

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