ग़ालिब अथवा मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ान (Ghalib अथवा Mirza Asadullah Baig Khan, अथवा مرزا اسدللا بےغ خان) (जन्म- 27 दिसम्बर, 1797 ई. आगरा - 15 फ़रवरी, 1869 ई. दिल्ली) जिन्हें सारी दुनिया 'मिर्ज़ा ग़ालिब' के नाम से जानती है, उर्दू-फ़ारसी के प्रख्यात कवि थे। इनके दादा 'मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ाँ' समरकन्द से भारत आए थे। बाद में वे लाहौर में 'मुइनउल मुल्क' के यहाँ नौकर के रूप में कार्य करने लगे। मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ाँ के बड़े बेटे 'अब्दुल्ला बेग ख़ाँ से मिर्ज़ा ग़ालिब हुए। अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, नवाब आसफ़उद्दौला की फ़ौज में शामिल हुए और फिर हैदराबाद से होते हुए अलवर के राजा 'बख़्तावर सिंह' के यहाँ लग गए। लेकिन जब मिर्ज़ा ग़ालिब महज 5 वर्ष के थे, तब एक लड़ाई में उनके पिता शहीद हो गए। मिर्ज़ा ग़ालिब को तब उनके चचा जान 'नसरुउल्ला बेग ख़ान' ने संभाला। पर ग़ालिब के बचपन में अभी और दुःख व तकलीफें शामिल होनी बाकी थीं। जब वे 9 वर्ष के थे, तब चचा जान भी चल बसे। मिर्ज़ा ग़ालिब का सम्पूर्ण जीवन ही दु:खों से भरा हुआ था। आर्थिक तंगी ने कभी भी इनका पीछा नहीं छोड़ा। क़र्ज़ में हमेशा घिरे रहे, लेकिन अपनी शानो-शौक़त में कभी कमी नहीं आने देते थे। इनके सात बच्चों में से एक भी जीवित नहीं रहा। जिस पेंशन के सहारे इन्हें व इनके घर को एक सहारा प्राप्त था, वह भी बन्द कर दी गई थी।
मिर्ज़ा असदउल्ला ख़ाँ का जन्म ननिहाल, आगरा में 27 दिसम्बर, 1797 ई. को रात के समय हुआ था। चूँकि पिता फ़ौजी नौकरी में इधर-उधर घूमते रहे, इसीलिए ज़्यादातर इनका लालन-पालन ननिहाल में ही हुआ। जब ये पाँच साल के थे, तभी पिता का देहान्त हो गया था। पिता के बाद चचा नसरुल्ला बेग ख़ाँ ने स्वयं इन्हें बड़े प्यार से पाला।
मिर्ज़ा ग़ालिब
नसरुल्ला बेग ख़ाँ मराठों की ओर से आगरा के सूबेदार थे, पर जब लॉर्ड लेक ने मराठों को हराकर आगरा पर अधिकार कर लिया, तब यह पद भी छूट गया और उसकी जगह एकअंग्रेज़ कमीश्नर की नियुक्ति हुई। किन्तु नसरुल्ला बेग ख़ाँ के साले लोहारू के नवाब फ़खउद्दौला अहमदबख़्श ख़ाँ की लॉर्ड लेक से मित्रता थी। उनकी सहायता से नसरुल्ला बेग अंग्रेज़ी सेना में 400 सवारों के रिसालदार नियुक्त हो गए। रिसाले तथा इनके भरण-पोषण के लिए 1700 रुपये तनख़्वाह तय हुई। इसके बाद मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग ने स्वयं लड़कर भरतपुर के निकट सोंक और सोंसा के दो परगने होल्कर के सिपाहियों से छीन लिए, जो बाद में लॉर्ड लेक द्वारा इन्हें दे दिए गए। उस समय सिर्फ़ इन परगनों से ही लाख-डेढ़ लाख सालाना आमदानी थी।
ग़ालिब का व्यक्तित्व
मिर्ज़ा असद उल्लाह ख़ाँ ‘ग़ालिब’ 27 दिसम्बर, 1797 को पैदा हुए। सितम्बर, 1796 में एक फ़्राँसीसी, पर्रों, जो अपनी क़िस्मत आज़माने हिन्दुस्तान आया था, दौलत राव सिंधिया की शाही फ़ौज का सिपहसलार बना दिया गया। इस हैसियत से वह हिन्दुस्तान का गवर्नर भी था। उसने दिल्ली का मुहासरा करके उसे फ़तह कर लिया और अपने एक कमांडर, ले मारशाँ को शहर का गवर्नर और शाह आलक का मुहाफ़िज मुक़र्रर किया। उसके बाद उसने आगरा पर क़ब्ज़ा कर लिया। अब शुमाली हिन्दुस्तान में उसके मुक़ाबले का कोई भी नहीं था और उसकी हुमूमत एक इलाक़े पर थी, जिसकी सालाना मालगुज़ारी दस लाख पाउण्ड से ज़्यादा थी। वह अलीगढ़ के क़रीब एक महल में शाहाना शानौ-शौकत से रहता था। यहीं से वह राजाओं और नवाबों के नाम अहकामात जारी करता और बग़ैर किसी मदाख़लत के चंबल से सतलुज तक अपना हुक्म चलाता था। 15 सितम्बर, 1803 ई. को जनरल लेक सिंधिया के एक सरदार बोर्गी ई को शिकस्त देकर फ़ातेहाना अंदाज़ से दाख़िल हुआ। बोर्गी ई का कुछ अर्से तक शहर पर क़ब्ज़ा रह चुका था और उसने इसे अंग्रेज़ों के लिए ख़ाली करने से पहले बहुत एहतेमाम से लूटा था। जनरल लेक शहंशाह क ख़िदमत में हाज़िर हुआ, उसे बड़े-बड़े ख़िताब दिए गए और शाहआलम और उसके जा-नशीन ईस्ट इण्डिया कम्पनी के वज़ीफ़ा-ख़्वार हो गए। अट्ठाहरवीं सदी का दूसरा हिस्सा वह ज़माना था, जब यूरोप से सिपाही और ताजिर हिन्दुस्तान में अपनी क़िस्मत आजमाने आए और उन्होंने ख़ूब हंगामे किए। इसके मुक़ाबले में बस्त एशिया से मौक़े और मआश की तलाश में आने वालों की तादाद कम थी, मगर थोड़े-बहुत आते ही रहे। इन्हीं में से एक मिर्ज़ा क़ोक़न बेग, मुहम्मद शाही दौर के आख़िर में समरकन्द से आए और लाहौर में मुईन-उल-मुल्क के यहाँ मुलाज़िम हुए। उनके बारे में हमें कम ही मालूम है। उनके दो लड़के थे, मिर्ज़ा ग़ालिब के वालिद अब्दुल्लाह बेग और नस्र उल्लाह बेग। अब्दुल्ला बेग को सिपगहरी के पेशे में कोई ख़ास कामयाबी प्राप्त नहीं हुई। पहले वह आसिफ़ उद्दौला की फ़ौज में मुलाज़िम हुए, फिर हैदराबाद में और फिर अलवर के राजा बख़्तावर सिंह के यहाँ। बेशतर वक़्त उन्होंने ‘ख़ाना दामाद’ की हैसियत से गुज़ारा। सन् 1802 ई. में वह एक लड़ाई में काम आए, जब ग़ालिब की उम्र पाँच साल की थी। उनसे सबसे क़रीबी अज़ीज़, लोहारू के नवाब, भी तुर्किस्तान से आए हुए ख़ानदान के थे और उनके जद्दे-आला भी उसी ज़माने में हिन्दुस्तान आए थे, जिस वक़्त मिर्ज़ा क़ोक़म बेग आए थे। दिल्ली में ससुर तथा उनके प्रतिष्ठित साथियों एवं मित्रों के काव्य प्रेम का इन पर अच्छा असर हुआ। इलाहीबख़्श ख़ाँ पवित्र एवं रहस्यवादी प्रेम से पूर्ण काव्य-रचना करते थे। वह पवित्र विचारों के आदमी थे। उनके यहाँ सूफ़ियों तथा शायरों का जमघट रहता था। निश्चय ही ग़ालिब पर इन गोष्ठियों का अच्छा असर पड़ा होगा। यहाँ उन्हें तसव्वुफ़ (धर्मवाद, आध्यात्मवाद) का परिचय मिला होगा, और धीरे-धीरे यह जन्मभूमि आगरा में बीते बचपन तथा बाद में किशोरावस्था में दिल्ली में बीते दिनों के बुरे प्रभावों से मुक्त हुए होंगे। दिल्ली आने पर भी शुरू-शुरू में तो मिर्ज़ा का वही तर्ज़ रहा, पर बाद में वह सम्भल गए। कहा जाता है कि मनुष्य की कृतियाँ उसके अन्तर का प्रतीक होती हैं। मनुष्य जैसा अन्दर से होता है, उसी के अनुकूल वह अपनी अभिव्यक्ति कर पाता है। चाहे कैसा ही भ्रामक परदा हो, अन्दर की झलक कुछ न कुछ परदे से छनकर आ ही जाती है।
1857 के ग़दर के अनेक चित्र मिर्ज़ा 'ग़ालिब' के पत्रों में तथा इनकी पुस्तक ‘दस्तंबू’ में मिलते हैं। इस समय इनकी मनोवृत्ति अस्थिर थी। यह निर्णय नहीं कर पाते थे कि किस पक्ष में रहें। सोचते थे कि पता नहीं ऊँट किस करवट बैठे? इसीलिए क़िले से भी थोड़ा सम्बन्ध बनाये रखते थे। ‘दस्तंबू’ में उन घटनाओं का ज़िक्र है जो ग़दर के समय इनके आगे गुज़री थीं। उधर फ़साद शुरू होते ही मिर्ज़ा की बीवी ने उनसे बिना पूछे अपने सारे ज़ेवर और क़ीमती कपड़े मियाँ काले साहब के मकान पर भेज दिए ताकि वहाँ सुरक्षित रहेंगे। पर बात उलटी हुई। काले साहब का मकान भी लुटा और उसके साथ ही ग़ालिब का सामान भी लुट गया। चूँकि इस समय राज मुसलमानों का था, इसीलिए अंग्रेज़ों ने दिल्ली विजय के बाद उन पर विशेष ध्यान दिया और उनको ख़ूब सताया। बहुत से लोग प्राण-भय से भाग गए। इनमें मिर्ज़ा के भी अनेक मित्र थे। इसीलिए ग़दर के दिनों में उनकी हालत बहुत ख़राब हो गई। घर से बाहर बहुत कम निकलते थे। खाने-पीने की भी मुश्किल थी। ऐसे वक़्त उनके कई हिन्दू मित्रों ने उनकी मदद की। मुंशी हरगोपाल ‘तुफ़्ता’ मेरठ से बराबर रुपये भेजते रहे, लाला महेशदास इनकी मदिरा का प्रबन्ध करते रहे। मुंशी हीरा सिंह दर्द, पं. शिवराम एवं उनके पुत्र बालमुकुन्द ने भी इनकी मदद की। मिर्ज़ा ने अपने पत्रों में इनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की है।
रचनाएँ
ग़ालिब ने अपनी रचनाओं में सरल शब्दों का प्रयोग किया है। उर्दू गद्य-लेखन की नींव रखने के कारण इन्हें वर्तमान उर्दू गद्य का जन्मदाता भी कहा जाता है। इनकी अन्य रचनाएँ 'लतायफे गैबी', 'दुरपशे कावेयानी', 'नामाए ग़ालिब', 'मेह्नीम' आदि गद्य में हैं। फ़ारसी के कुलियात में फ़ारसी कविताओं का संग्रह हैं। दस्तंब में इन्होंने 1857 ई. के बलवे का आँखों देखा विवरण फ़ारसी गद्य में लिखा हैं। ग़ालिब ने निम्न रचनाएँ भी की हैं-
- 'उर्दू-ए-हिन्दी'
- 'उर्दू-ए-मुअल्ला'
- 'नाम-ए-ग़ालिब'
- 'लतायफे गैबी'
- 'दुवपशे कावेयानी' आदि।
इनकी रचनाओं में देश की तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति का वर्णन हुआ है। उनकी ख़ूबसूरत शायरी का संग्रह 'दीवान-ए-ग़ालिब' के रूप में 10 भागों में प्रकाशित हुआ है। जिसका अनेक स्वदेशी तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
ग़ालिब का व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक था। ईरानी चेहरा, गोरा-लम्बा क़द, सुडौल एकहरा बदन, ऊँची नाक, कपोल की हड्डी उभरी हुई, चौड़ा माथा, घनी उठी पलकों के बीच झाँकते दीर्घ नयन, संसार की कहानी सुनने को उत्सुक लम्बे कान, अपनी सुनाने को उत्सुक, मानों बोल ही पडेंगे। ऐसे ओठ अपनी चुप्पी में भी बोल पड़ने वाले, बुढ़ापे में भी फूटती देह की कान्ती जो इशारा करती है कि जवानी के सौंदर्य में न जाने क्या नशा रहा होगा। सुन्दर गौर वर्ण, समस्त ज़िन्दादिली के साथ जीवित, इसी दुनिया के आदमी, इंसान और इंसान के गुण-दोषों से लगाये-यह थे मिर्ज़ा वा मीरज़ा ग़ालिब।
बेहतरीन शायर
मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ान 'ग़ालिब' का स्थान उर्दू के चोटी के शायर के रूप में सदैव अक्षुण्ण रहेगा। उन्होंने उर्दू साहित्य को एक सुदृढ़ आधार प्रदान किया है। उर्दू और फ़ारसी के बेहतरीन शायर के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली तथा अरब एवं अन्य राष्ट्रों में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय हुए। ग़ालिब की शायरी में एक तड़प, एक चाहत और एक आशिक़ाना अंदाज़ पाया जाता है। जो सहज ही पाठक के मन को छू लेता है।