भैंस : -
भैंस (ब्यूबेलस ब्यूबेलिस), यह गोवंश (बोविडी) का जुगाली करने वाला स्तनपायी प्राणी है। भैंस को प्राचीन समय से ही एशिया में पालतू बना लिया गया था। भैंस एक दुधारू पशु है। कुछ लोगों द्वारा भैंस का दूध गाय के दूध से अधिक पसंद किया जाता है।
यह ग्रामीण भारत में बहुत उपयोगी पशु है। बड़े और भारी शरीर वाले इस जानवर की ऊँचाई कंधे तक 1.5 से 1.8 मीटर या इससे अधिक, लंबाई 2.4 से 2.8 मीटर और वज़न लगभग 1000 किग्रा तक होता है। इसका शरीर धूसर काले या गहरे भूरे रंग का होता है और इसके शरीर पर बहुत कम बाल होते हैं तथा इसके 2 मीटर तक लंबे सींग पीछे की ओर निकले तथा ऊपर मुड़े होते है।
प्रजातियाँ
भैंस की मुख्यतः दो क़िस्मे हैं, दक्षिण चीन और दक्षिण-पूर्ण एशिया के धान की खेती वाले इलाकों में पाई जाने वाली दलदली क्षेत्र की भैंस मुख्यतः भारवाही पशु है; इसका दूध कम ही निकाला जाता है, लेकिन काम करने की आयु समाप्त होने पर इसका मांस खाने के काम आता है। दूसरी क़िस्म नदी क्षेत्र वाली भैंस है, जिसे भारत, पाकिस्तान, दक्षिण पूर्व एशिया और और मिस्र में मुख्यतः दुग्ध उत्पादन के लिए पाला जाता है और मांस एवं भारवहन के लिए भी इसका उपयोग होता है। नम जलवायु और जलाक्रांत क्षेत्रों में काम करने के लिए भैंस उपयुक्त जानवर है।
घोड़ा : -
घोड़ा (अश्व) मनुष्य से जुड़ा हुआ संसार का सबसे प्राचीन पालतू स्तनपोषी प्राणी है, जिसने अज्ञात काल से मनुष्य की किसी ने किसी रूप में सेवा की है। घोड़ा ईक्यूडी (Equidae) कुटुंब का सदस्य है। इस कुटुंब में घोड़े के अतिरिक्त वर्तमान युग का गधा, जेबरा, भोट-खर, टट्टू, घोड़-खर एवं खच्चर भी है। आदिनूतन युग (Eosin period) के ईयोहिप्पस (Eohippus) नामक घोड़े के प्रथम पूर्वज से लेकर आज तक के सारे पूर्वज और सदस्य इसी कुटुंब में सम्मिलित हैं।
इसका वैज्ञानिक नाम ईक्वस (Equus) लैटिन शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ घोड़ा है, परंतु इस कुटुंब के दूसरे सदस्य ईक्वस जाति की ही दूसरों छ: उपजातियों में विभाजित है। अत: केवल ईक्वस शब्द से घोड़े को अभिहित करना उचित नहीं है। आज के घोड़े का सही नाम ईक्वस कैबेलस (Equus caballus) है। इसके पालतू और जंगली संबंधी इसी नाम से जाने जातें है। जंगली संबंधियों से भी यौन संबंध स्थापति करने पर बाँझ संतान नहीं उत्पन्न होती। कहा जाता है, आज के युग के सारे जंगली घोड़े उन्ही पालतू घोड़ो के पूर्वज हैं जो अपने सभ्य जीवन के बाद जंगल को चले गए और आज जंगली माने जाते है। यद्यपि कुछ लोग मध्य एशिया के पश्चिमी मंगोलिया और पूर्वी तुर्किस्तान में मिलनेवाले ईक्वस प्रज़्वेलस्की (Equus przwalski) नामक घोड़े को वास्तविक जंगली घोड़ा मानते है, तथापि वस्तुत: यह इसी पालतू घोड़े के पूर्वजो में से है। दक्षिण अफ्रिका के जंगलों में आज भी घोड़े बृहत झुंडो में पाए जाते है। एक झुंड में एक नर ओर कई मादाएँ रहती है। सबसे अधिक 1000 तक घोड़े एक साथ जंगल में पाए गए है। परंतु ये सब घोड़े ईक्वस कैबेलस के ही जंगली पूर्वज है और एक घोड़े को नेता मानकर उसकी आज्ञा में अपना सामाजिक जीवन व्यतीत करतेे है। एक गुट के घोड़े दूसरे गुट के जीवन और शांति को भंग नहीं करते है। संकटकाल में नर चारों तरफ से मादाओ को घेर खड़े हो जाते है और आक्रमणकारी का सामना करते हैं। एशिया में काफी संख्या में इनके ठिगने कद के जंगली संबंधी 50 से लेकर कई सौ तक के झुंडों में मिलते है। मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार उन्हे पालतू बनाता रहता है।
उत्पत्ति और विकास का इतिहास
यद्यपि घोड़े की उत्पत्ति का काफ़ी प्रमाण प्राप्त हो चुका है और उसके विकास के पूर्ण रूप से क्रमबद्ध अवशेष अमरीका और अन्य देशों में प्राप्त हो चुके हैं, फिर भी बहुत सी गुत्थियाँ अभी तक नहीं सुलझ पाई हैं। इन जीवाश्म अवशेषों से यह ज्ञात होता है कि 7,25,00,000 वर्ष पूर्व की उत्पत्ति पृथ्वी तल पर नहीं हुई थी। कहा जाता है, घोड़े के और मनुष्य के प्रथम पूर्वजों का जन्म एक ही काल में हुआ, अर्थात् दोनों की उत्पत्ति एक साथ हुई। 5,50,00,000 वर्ष पूर्व ईयोसीन या आदिनूतन युग के आरंभ में ईयोहिप्पस एवं हाइरैकोथीरियम (Hyracoatherium) नामक प्रथम घोड़े की उत्पत्ति हुई। यह पूर्वज लोमड़ी के समान छोटा था, जिसकी खोपड़ी अल्प विकसित थी, पैर पतले और लंबे, अगले पैरों में चार अँगुलियाँ, पिछले में तीन, दाँत 44 और नीचे उपरिदंत वाले थे, जो इसके जंगली जीवन और कोमल पत्तों आदि के भोजन के अनुकूल थे। इस पूर्वज के फौसिल (जीवाश्म) उत्तरी अमरीका, यूरोप तथा एशिया में प्राप्त हुए हैं। तब से क्रमश: घोड़े का विकास होता रहा है।
सिंह : -
सिंह (पेन्थेरा लियो) पेन्थेरा वंश की चार बड़ी बिल्लियों में से एक है और फेलिडे परिवार का सदस्य है। यह बाघ के बाद दूसरी सबसे बड़ी सजीव बिल्ली है, जिसके कुछ नरों का वजन 250 किलोग्राम से अधिक होता है। जंगली सिंह वर्तमान में उप सहारा अफ्रीका और एशिया में पाए जाते हैं। इसकी तेजी से विलुप्त होती बची खुची जनसंख्या उत्तर पश्चिमी भारतमें पाई जाती है, ये ऐतिहासिक समय में उत्तरी अफ्रीका, मध्य पूर्व और पश्चिमी एशिया से गायब हो गए थे। प्लेइस्तोसेन के अंतिम समय तक, जो लगभग 10,000 वर्ष् पहले था, सिंह मानव के बाद सबसे अधिक व्यापक रूप से फैला हुआ बड़ा स्तनधारी, भूमि पर रहने वाला जानवर था। वे अफ्रीका के अधिकांश भाग में, पश्चिमी यूरोप से भारत तक अधिकांश यूरेशिया में और युकोन से पेरू तक अमेरिका में पाए जाते थे। सिंह जंगल में 10-14 वर्ष तक रहते हैं, जबकि वे कैद मे 20 वर्ष से भी अधिक जीवित रह सकते हैं। जंगल में, नर कभी-कभी ही दस वर्ष से अधिक जीवित रह पाते हैं, क्योंकि प्रतिद्वंद्वियों के साथ झगड़े में अक्सर उन्हें चोट पहुंचती है। वे आम तौर पर सवाना और चारागाह में रहते हैं, हालांकि वे झाड़ी या जंगल में भी रह सकते हैं। अन्य बिल्लियों की तुलना में सिंह आम तौर पर सामाजिक नहीं होते हैं।
सिंहों के एक समूह जिसे अंग्रेजी मे प्राइड कहॉ जाता में सम्बन्धी मादाएं, बच्चे और छोटी संख्या में नर होते हैं। मादा सिंहों का समूह प्रारूपिक रूप से एक साथ शिकार करता है, जो अधिकांशतया बड़े अनग्युलेट पर शिकार करते हैं। सिंह शीर्ष का और कीस्टोन शिकारी है, हालांकि वे अवसर लगने पर मृतजीवी की तरह भी भोजन प्राप्त कर सकते हैं। सिंह आमतौर पर चयनात्मक रूप से मानव का शिकार नहीं करते हैं, फिर भी कुछ सिंहों को नर-भक्षी बनते हुए देखा गया है, जो मानव शिकार का भक्षण करना चाहते हैं। सिंह एक संवेदनशील प्रजाति है, इसकी अफ्रीकी रेंज में पिछले दो दशकों में इसकी आबादी में संभवतः 30 से 50 प्रतिशत की अपरिवर्तनीय गिरावट देखी गयी है। सिंहों की संख्या नामित सरंक्षित क्षेत्रों और राष्ट्रीय उद्यानों के बहार अस्थिर है। हालांकि इस गिरावट का कारण पूरी तरह से समझा नहीं गया है, आवास की क्षति और मानव के साथ संघर्ष इसके सबसे बड़े कारण हैं। सिंहों को रोमन युग से पिंजरे में रखा जाता रहा है, यह एक मुख्य प्रजाति रही है जिसे अठारहवीं शताब्दी के अंत से पूरी दुनिया में चिडिया घर में प्रदर्शन के लिए रखा जाता रहा है। खतरे में आ गयी एशियाई उप प्रजातियों के लिए पूरी दुनिया के चिड़ियाघर प्रजनन कार्यक्रमों में सहयोग कर रहे हैं। दृश्य रूप से, एक नर सिंह अति विशिष्ट होता है और सरलता से अपने अयाल (गले पर बाल) द्वारा पहचाना जा सकता है। सिंह, विशेष रूप से नर सिंह का चेहरा, मानव संस्कृति में सबसे व्यापक ज्ञात जंतु प्रतीकों में से एक है। उच्च पाषाण कालकी अवधि से ही इसके वर्णन मिलते हैं, जिनमें लॉसकाक्स और चौवेत गुफाओं की व नक्काशियां और चित्रकारियां सम्मिलित हैं, सभी प्राचीन और मध्य युगीन संस्कृतियों में इनके प्रमाण मिलते हैं, जहां ये ऐतिहासिक रूप से पाए गए। राष्ट्रीय ध्वजों पर, समकालीन फिल्मों और साहित्य में चित्रकला में, मूर्तिकला में और साहित्य में इसका व्यापक वर्णन पाया जाता है।
उप-प्रजाति
परंपरागत रूप से, हाल ही में सिंह की बारह उप प्रजातियों को पहचाना गया है, जिसमें से सबसे बड़ा है बारबरी सिंह। इन उप प्रजातियों को विभेदित करने वाले मुख्य अंतर है स्थिति, अयाल की उपस्थिति, आकार और वितरण। क्योंकि ये लक्षण बहुत नगण्य हैं और उच्च व्यक्तिगत विभेदन को दर्शाते हैं, इनमें से अधिकंश रूप विवादस्पद हैं और संभवतया अमान्य हैं; इसके अतिरिक्त, वे अक्सर अज्ञात उत्पत्ति की चिडियाघर सामग्री पर निर्भर करते हैं जो "मुख्य लेकिन असामान्य" आकारिकी लक्षणों से युक्त होते हैं। आज केवल आठ उप प्रजातियों को आमतौर पर स्वीकार किया जाता है, लेकिन इनमें से एक (केप सिंह जो पूर्व मेंपेन्थेरा लियो मेलानोकाइटा के रूप में वर्णित किया जाता था। यहां तक कि शेष सात उप प्रजातियां बहुत अधिक हो सकती हैं; हाल ही के अफ्रीकी सिंह में माइटोकोंड्रिया की भिन्नता साधारण है, जो बताती है कि सभी उप सहारा के सिंह एक ही उप प्रजाति माने जा सकते हैं, संभवतया इन्हें दो मुख्य क्लेड्स में विभाजित किया जाता है: एक ग्रेट रिफ्ट घाटी के पश्चिम में और दूसरा पूर्व में। पूर्वी केन्या में सावो के सिंह आनुवंशिक रूप से, पश्चिमी केन्या के एबरडेर रेंज की तुलना में, ट्रांसवाल (दक्षिण अफ्रीका) के सिंहों के बहुत निकट हैं।
वर्तमान में आठ हाल ही की उप प्रजातियों को पहचाना जाता है : -
- पी एल परसिका , जो एशियाटिक सिंह या दक्षिण एशियाई, पर्शियन, या भारतीय सिंह के रूप में जाना जाता है, एक बार तुर्की से पूरे मध्य पूर्व को, पाकिस्तान,भारत और यहां तक कि बांग्लादेश तक फ़ैल गया. हालांकि, बड़े समूह और दिन की रोशनी में की जाने वाली गतिविधियां उन्हें बाघ या तेंदुए की तुलना में अतिक्रमण करने में मदद करती है; वर्तमान में भारत के गिर जंगलों में और इसके आस पास 300 सिंह हैं।
- पी.एल. लियो, जो बार्बरी सिंह के रूप में जाने जाते हैं, अत्यधिक शिकार की वजह से जंगलों में से विलुप्त हो गए हैं, यद्यपि कैद में रखे गए कुछ जंतु अभी भी मौजूद हैं। यह सिंह की सबसे बड़ी उप प्रजातियों में से एक थी, जिनकी लम्बाई 3-3.3 मीटर (10-10.8 फुट) और वजन नर के लिए 200 किलोग्राम (440 पाउन्ड)[44] से अधिक था। वे मोरक्को से लेकर मिस्र तक फैले हुए थे। अंतिम बार्बरी सिंह को 1922 में मोरक्को में मार डाला गया!
- पी.एल. सेनेगलेन्सिस जो पश्चिम अफ्रीकी सिंह के रूप में जाना जाता है, पश्चिम अफ्रीका में सेनेगल से नाइजीरिया तक पाया जाता है।
- पी.एल. आजान्दिका, जो पूर्वोत्तर कांगो सिंह के रूप में जाना जाता है, कांगो के पूर्वोत्तर भागों में पाया जाता है।
- पी.एल. नुबिका जो पूर्व अफ्रीकी या मसाई सिंह के रूप में जाना जाता है, पूर्वी अफ्रीका में, इथियोपिया और केन्या से तंजानिया और मोजाम्बिक तक पाया गया है।
- पी.एल. ब्लेयेनबर्घी, जो दक्षिण पश्चिम अफ्रीकी या कटंगा सिंह के रूप में जाना जाता है, वह दक्षिण पश्चिम अफ्रीका, नामीबिया, बोत्सवाना, अंगोला, कटंगा(जायरे), जाम्बिया और जिम्बाब्वे में पाया जाता है।
- पी.एल. क्रुजेरी दक्षिण पूर्वी अफ्रीकी सिंह या ट्रांसवाल सिंह के रूप में जाना जाता है, यह क्रूजर राष्ट्रीय उद्यान सहित दक्षिण पूर्वी अफ्रीका के ट्रांसवाल क्षेत्र में पाया जाता है।
- पी.एल. मेलानो काईटा जो केप सिंह के रूप में जाना है, 1860 के आसपास जंगलों में विलुप्त हो गए। माईटोकोंड्रीया के DNA (डीएनए) शोध के परिणाम एक अलग उप प्रजाति की उपस्थिति का समर्थन नहीं करते हैं। संभवतया ऐसा प्रतीत होता है कि केप सिंह मौजूदा पी एल क्रुजेरी की केवल दक्षिणी आबादी थी।
विलुप्त
अभिनूतन युग, (प्लाइस्टोसीन 16 लाख से 10 हज़ार वर्ष पूर्व) के दौरान सिंहों का भौगोलिक विस्तार व्यापक था। संपूर्ण उत्तरी अमेरिका, अफ़्रीका, बाल्कन के अधिकांश भागों, अनातोलिया और मध्य-पूर्व से लेकर भारत तक इनका आवास था। लगभग 10 हज़ार वर्ष पूर्व वे उत्तरी अमेरिका से विलुप्त हो गए, लगभग 2 हज़ार वर्ष पूर्व बाल्कन से और ईसाईयों के धर्मयुद्ध के दौरान वे फ़िलिस्तीन से भी विलुप्त हो गए। 20वीं सदी के अंत मे इनकी संख्या घटकर 10 हज़ार ही रह गई। राष्ट्रीय उद्यानों के बाहर स्थित इनके पर्यावास के क्षेत्र कृषि में काम आने लगे। तंज़ानिया के सेरेंगेती और अन्य राष्ट्रीय उद्यानों में पर्यटको के आकर्षण का केंद्र होने के कारण इनका संरक्षण सुरक्षित प्रतीत होता है।
सेही (Porcupine) अथवा साही अफ़्रीका और एशिया की प्राचीन दुनिया की सेहियाँ (हिस्ट्रिक्स) बड़ी, नाटी और छोटी टाँगों वाली कृंतक होती हैं जिनकी एक छोटी अपरिग्राही पुच्छ होते है। शरीर और पुच्छ पृष्ठ ओर मोटे बालों के अतिरिक्त, सुरक्षा के लिए लम्बे, तेज़, उत्थानशील काले और सफ़ेद कंटकों या शूलों से आच्छादित होते हैं। जैसा कि सामान्यतया विश्वास किया जाता है, सेहियाँ अपने कंटकों को फेंककर आक्रमण नहीं करती हैं। भारतीय शिखरैधारी सेही, हिस्ट्रिक्स इन्डिका वनों, चट्टानी पहाड़ियों और तंग घाटियों में रहती हैं। सेही दिन का अधिकांश समय अपने बिल में व्यतीत करती है, परंतु रात्री में फ़सलों, शाक-सब्ज़ियों और पौधों की जड़ों को खाने के लिए बाहर निकलती है। सेही सूअर की भाँती घुरघुर ध्वनियाँ निकालती है।
भारतीय सेही एक कृंतक जानवर है। इसका फैलाव तुर्की, भूमध्य सागर से लेकर दक्षिण-पश्चिम तथा मध्य एशिया(अफ़गानिस्तान और तुर्कमेनिस्तान सहित) एवं दक्षिण एशिया (पाकिस्तान, भारत, नेपाल तथा श्रीलंका) और चीन तक में है।हिमालय में यह 2,400 मी. तक की ऊँचाई में पाया जाता है।
लंगूर : -
लंगूर : -
लंगूर (Langur), एशियायी बन्दरों की विभिन्न जातियों का सामान्य नाम है। यह प्राइमेट गण (Primate) के सर्कोपिथीसिडी कुल (Cercopithecidae family) का प्रसिद्ध प्राणी है, जो कहीं-कहीं हनुमान बंदर भी कहा जाता है। यह कद में बंदरी से कुछ बड़ा, लगभग दो फुट का होता है। लेकिन इसकी दुम इसके शरीर से लंबी रहती है। मादा नर से छोटी होती है। इसके शरीर का रंग सिलेटी तथा अयाल भूरा होता है जो ऊपर की ओर गाढ़ा और नीचे की ओर हलका रहता है। चेहरे, कान, तलुए और हाथ-पैर का बाहरी हिस्सा काला रहता है।
लंगूर, बंदरों से कम ऊधमी होते हैं और आबादियों की अपेक्षा जंगलों में रहना अधिक पसंद करते हैं, लेकिन कहीं-कहीं बस्तियों में भी इनके बड़े-बड़े गोल दिखाई पड़ते हैं। इनका मुख्य भोजन फल-फूल है, लेकिन बंदरों की तरह, ये गल्ला, कीड़े मकोड़े और अंडे भी खा लेते हैं। मादा एक बार में एक बच्चा देती है, जो कुछ समय तक माँ के पेट से चिपका रहता है।
अलग-अलग प्रजातियों के अनुसार इन लंगूरों का सिर और शरीर 40 से 80 सेमी लंबा और पूंछ लगभग 50 से 110 सेमी लंबी होती है। इन बंदरों के लंबे रोय होते हैं और इनकी कई प्रजातियों में तो सिर पर लंबे बालों की टोपी या कलगीनुमा संरचना होती है। वयस्कों के चेहरे का रंग सामान्यतः काला होता है। रंग अलग-अलग प्रजातियों पर भी निर्भर करता है। लेकिन आमतौर पर यह स्लेटी,भूरा अथवा काला होता है। लगभग 168 दिनों की गर्भावधि के बाद पैदा हुए एकल शिशु का रंग वयस्क के रंग से भिन्न होता है और शायद इसीलिए उसकी मां उसकी रक्षा के लिए प्रेरित होती है। इस वंश का सामान्य बंदर हनुमान लंगूर जन्म के समय लगभग काला और वयस्क होते-होते स्लेटी, धूसर या भूरा हो जाता है। भारत में पवित्र माना जाने वाला यह लंगूर फसलों और व्यापारियों के गोदामों पर धावा बोलते हुए गांव और मंदिरों में स्वतंत्रता से घूमता रहता है। हनुमान लंगूर लगभग 20 से 30 के झुण्ड में रहते हैं। इस जाति में नर का प्रमुख स्थान है। लेकिन मादा का कोई निश्चित स्थान नहीं होता है। मां अपने बच्चे की सुरक्षा का बहुत ध्यान रखती है। लेकिन वह अन्य मादाआं को नवजात शिशु की देखभाल में सहायता की अनुमति दे देती है। डाक लंगूर (पायगाथ्रिक्स नीमियस) दक्षिण पूर्व एशिया के जंगलों में रहने वाला बड़ा बंदर है। इसके शरीर पर छोटे और धूसर रंग के रोएं होते हैं। जिन पर लाल और सफेद निशान बने होते हैं। चपटी-छोटी और मोटी नाक वाले लंगूर (पायगाथ्रिक्स राक्सलनी और एव्यूंक्यूलस) चीन व उत्तरी वियतनाम के जंगलों में पाये जाते हैं। इनकी नाक ऊपर की ओर मुड़ी होती है और शरीर के लंबे रोएं धूसर काले या भूरे व ऊपर से पीलापन लिए होते हैं। इंडोनेशिया के नम जंगलों में पाए जाने वाले मैकाक जैसे सुअर-पूंछ लंगूर (नैसैलिस कानकलर) की नाक चपटी और रंग भूरा सा होता है। प्रेस्बाइटिस एंटैलस प्रजाति के अतिरिक्स अन्य सभी वर्णित प्रजातियां दुर्लभ और विलुप्तप्राय प्राणियों के रूप में वर्गीकृत हैं।
दरियाई घोड़ा : -
दरियाई घोड़ा या जलीय घोड़ा (Hippopotamus) एक विशाल और गोलमटोल स्तनपायी प्राणी है जो अफ्रीका का मूल निवासी है। दरियाई घोड़े नाम के साथ घोड़ा शब्द जुड़ा है एवं "हिप्पोपोटामस" शब्द का अर्थ "वाटर होर्स" यानी "जल का घोड़ा" होता है परन्तु उसका घोड़ों से कोई संबंध नहीं है। प्राणिविज्ञान की दृष्टि में यह सूअरों का दूर का रिश्तेदार है। यह शाकाहारी प्राणी नदियों एवं झीलों के किनारे तथा उनके मीठे जल में समूहों में रहना पसन्द करता है। उसे आसानी से विश्व का दूसरा सबसे भारी स्थलजीवी स्तनी कहा जा सकता है।
वह 14 फुट लंबा, 5 फुट ऊंचा और 4 टन भारी होता है। उसका विशाल शरीर स्तंभ जैसे और ठिंगने पैरों पर टिका होता है। पैरों के सिरे पर हाथी के पैरों के जैसे चौड़े नाखून होते हैं। आंखें सपाट सिर पर ऊपर की ओर उभरी रहती हैं। कान छोटे होते हैं। शरीर पर बाल बहुत कम होते हैं, केवल पूंछ के सिरे पर और होंठों और कान के आसपास बाल होते हैं। चमड़ी के नीचे चर्बी की एक मोटी परत होती है जो चमड़ी पर मौजूद रंध्रों से गुलाबी रंग के वसायुक्त तरल के रूप में चूती रहती है। इससे चमड़ी गीली एवं स्वस्थ रहती है। दरियाई घोड़े की चमड़ी खूब सख्त होती है। पारंपरिक विधियों से उसे कमाने के लिए छह वर्ष लगता है। ठीक प्रकार से तैयार किए जाने पर वह २ इंच मोटी और चट्टान की तरह मजबूत हो जाती है। हीरा चमकाने में उसका उपयोग होता है।