हाथी : -
हाथी आधुनिक मानव के समय का पृथ्वी पर विचरण करने वाला, सबसे विशालकाय स्तनपायी जीव है। इसकी दो प्रजातियों, एशियाई हाथी (एलिफ़स मैक्सीमस) और अफ़्रीकी हाथी (लॉक्सोडोंटा अफ़्रीकाना) में से एक, दोनों ही एलिफ़ैंटिडी परिवार गण, कुल के हैं, जिनका विशिष्ट लक्षण उनका बड़ा आकार, लंबी सूंड़ (विस्तारित नाक), स्तंभाकार पैर, विशाल कान (विशेषकर एल अफ़्रीकाना में) और बड़ा सिर है। एलिफ़ैस मैक्सीमस भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण-पूर्वी एशिया में पाया जाता है; जबकि एल. अफ़्रीकाना, अफ़्रीका के उपसहारा क्षेत्र में पाया जाता है। दोनों ही प्रजातियाँ घने जंगलों से लेकर सवाना (घास के खुले मैदान) तक में रहती हैं।
एशियाई हाथी
एशियाई हाथी अब पहले के मुक़ाबले सीमित क्षेत्र में ही पाए जाते हैं। पहले यह क्षेत्र पश्चिम एशिया के टिग्रिस-यूफ़्रेटस बेसिन से पूर्व की ओर उत्तरी चीन तक फैला हुआ था। इसमें वर्तमान इराक़ और पड़ोसी देश, दक्षिण ईरान, पाकिस्तान, हिमालय के दक्षिण में समूचा भारतीय उपमहाद्वीप, एशिया महाद्वीप का दक्षिण-पूर्वी हिस्सा, चीन का एक बड़ा हिस्सा और श्रीलंका , सुमात्रा तथा संभवतः जावा के क्षेत्र शामिल हैं। आमतौर पर हाथी स्लेटी भूरे रंग का होता है। कुछ हाथी सफेद होते हैं। इन्हें 'एल्बिनो' कहते हैं। म्याँमारआदि देशों में ऐसे हाथी पवित्र माने जाते हैं और इनसे कोई काम नहीं लिया जाता।
जीवाश्मों से पता चलता है कि किसी समय बोर्नियों में भी हाथी थे, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि वे वहाँ के मूल निवासी थे या 1750 के दशक में वहाँ लाकर छोड़े गए बंदी हाथियों के वंशज हैं। अभी मुख्य रूप से हाथी सबाह (मलेशिया) और कालिमंतन (इंडोनेशिया) के एक छोटे क्षेत्र तक सीमित हैं। हाथी पश्चिम एशिया, भारतीय महाद्वीप के अधिकांश हिस्से, दक्षिण-पूर्व एशिया के काफ़ी हिस्से और लगभग समूचे चीन (युन्नान प्रांत के दक्षिणी क्षेत्रों को छोड़कर) से विलुप्त हो चुके हैं। इसके क्षेत्र के पश्चिमी हिस्सों की शुष्कता, पालतू बनाए जाने के लिए बड़े पैमाने पर बंदी बनाने (जो लगभग 4,000 साल पाहले सिंधु घाटी में शुरू हुआ था), मानव आबादी के लगातार बढ़ने से इनके पर्यावास में कमी और इनका शिकार, इनके क्षेत्र व संख्या में कमी के प्रमुख कारण हैं। एक गणना के अनुसार, जंगली एशियाई हाथियों की संख्या 37 से 57 हज़ार के बीच है; इनका पर्यावास लगभग 5,00,000 वर्ग किमी में फ़ैला हुआ है। हाथी कंटीले झाड़ीदार जंगलों से लेकर सदाबहार वनों तक, दलदली क्षेत्र से लेकर घास के मैदानों तक और शुष्क एवं नम पर्णपाती वनों जैसे भिन्न पर्यावासों में पाए जाते हैं। पूर्वी हिमालय में हाथी 3,000 मीटर की ऊँचाई तक रहने में सक्षम है। 15 हज़ार हाथी बंदी अवस्था में हैं। भारत में लगभग 22 हज़ार जंगली और 3,000 पालतू हाथी हैं।
भारतीय हाथी
भारतीय हाथी एशियाई हाथियों की ही उपजाति हैं, अतः इनमें कोई विशेष अन्तर नहीं है। भारतीय हाथियों के अफ़्रीकी हाथियों के मुक़ाबले कान छोटे होते हैं, और माथा चौड़ा होता है। मादा के हाथीदाँत नहीं होते हैं। नर मादा से ज़्यादा बड़े होते हैं। सूँड अफ़्रीकी हाथी से ज़्यादा बड़ी होती है। पंजे बड़े व चौड़े होते हैं। पैर के नाख़ून ज़्यादा बड़े नहीं होते हैं। अफ़्रीकी पड़ोसियों के मुक़ाबले इनका पेट शरीर के वज़न के अनुपात में ही होता है, लेकिन अफ़्रीकी हाथी का सिर के अनुपात में पेट बड़ा होता है।
भारतीय हाथी लंबाई में 6.4 मीटर (21 फ़ुट) तक पहुँच सकता है; यह थाईलैंड के एशियाई हाथी से लंबा व पतला होता है। सबसे लंबा ज्ञात भारतीय हाथी 26 फ़ुट (7.88 मी) का था, पीठ के मेहराब के स्थान पर इसकी ऊँचाई 11 फुट (3.4 मीटर), 9 इंच (3.61 मीटर) थी और इसका वज़न 8 टन (17935 पौंड) था।
शारीरिक विलक्षणता
हाथी कुछ-कुछ स्लेटी से भूरे रंग के होते है और उनके शरीर के बाल बिखरे हुए तथा रूखे होते हैं। दोनों प्रजातियों में दो ऊपरी कृंतक दंत हाथीदाँत के रूप में विकसित होते हैं, लेकिन भारतीय हाथियों में यह आमतौर पर नहीं पाए जाते। नथुने, मांसल सूंड के छोर पर स्थित होते हैं, जो सांस लेने, खाने और पीने में उपयोगी होते हैं। हाथी सूंड के ज़रिये पानी खींचकर अपने मुंह में डालते हैं। हाथी की सूँड लगभग 2 मीटर लंबी और प्राय: 136 किलोग्राम भार की चमड़ी और अंतर्ग्रथित स्नायु और पेशियों की बनी होती है। यह अस्थिहीन, लचीली और असाधारण मज़बूत होती है। इससे वह सूंघता, पानी पीता, भोजन प्राप्त करता और उसे मुँह में डालता तथा अपने जोड़े और बच्चे को सहलाकर प्रेम प्रदर्शन आदि काम करता है। हाथी अपनी सूंड के छोर से घास, पत्तियाँ औरफल तोड़कर अपने मुंह में डालते हैं। हाथी अपनी सूँड से भारी से भारी भी और छोटे सी छोटी यहाँ तक की मूँगफली सदृश वस्तुओं को भी उठा सकता है। हाथी की नासिका छोटी और खोपड़ी बहुत बड़ी होती है। हाथी अपनी सूंड के छोर से घास, पत्तियाँ और फल तोड़कर अपने मुंह में डालते हैं। किसी किसी भारतीय नर हाथी के गजदंत नहीं होता। ऐसे हाथी को 'मखना' हाथी कहते हैं। मखना का शरीर असाधारण बड़ा होता है।हाथी स्नान करने में बड़ा नियमित होता है। अपने बच्चों को नियमित रूप से स्नान कराता है। यह अच्छा तैराक होता हैं। सारे शरीर को पानी में डूबोकर, केवल साँस के लिए सूँड़ को बाहर निकाले रख सकता है। यह किसी निश्चित स्थान पर पानी पीता, और एक स्थान पर जाकर विश्राम करता है। धूप से बचने के लिए घने जंगलों की छाया में सोता है। हाथी खड़ा खड़ा ही विश्राम करता है, अथवा करवट लेटता है। विश्राम के समय बिल्कुल शांत रहता है, केवल कान की फड़फड़ाहट या शरीर के डालने से उसकी उपस्थिति जानी जाती है।
हाथी राष्ट्रीय विरासत पशु घोषित
पर्यावरण मंत्रालय ने हाथियों के संरक्षण की दिशा में क़दम उठाते हुए उन्हें राष्ट्रीय धरोहर पशु घोषित कर दिया। राष्ट्रीय वन्य जीव बोर्ड (एनबीडब्ल्यूएल) की स्थाई समिति की 13 अक्टूबर, 2010 को हुई बैठक में हाथियों को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करने वाले प्रस्ताव को मंजूरी दी गई थी। इसके बाद पर्यावरण मंत्रालय ने 15 अक्टूबर, 2010 को इस सम्बंध में अधिसूचना जारी की।
भेड़िया : -
वृक या भेड़िया एक कुत्ते के रूप का जंगली जानवर है। वैज्ञानिक नज़रिए से भेड़िया कैनिडाए (canidae) पशु परिवार का सबसे बड़े शरीर वाला सदस्य है। किसी ज़माने में भेड़िये पूरे यूरेशिया, उत्तर अफ्रीका और उत्तर अमेरिका में पाए जाते थे लेकिन मनुष्यों की आबादी में बढ़ौतरी के साथ अब इनका क्ष्रेत्र पहले से बहुत कम हो गया है।
जब भेड़ियों और कुत्तों पर अनुवांशिकीअध्ययन किया गया तो पाया गया के कुत्तों की नस्ल भेड़ियों से ही निकली हुई हैं, यानि दसियों हज़ार वर्ष पहले प्राचीन मनुष्यों ने कुछ भेड़ियों को पालतू बना लिया था जिनसे कुत्तों के वंश की शुरुआत हुई। भेड़िये एक नर और एक मादा के परिवारों में रहते हैं जिसमें उनके बच्चे भी पलते हैं। यह भी देखा गया है के कभी-कभी भेड़ियों के किसी परिवार के नर-मादा किसी अन्य भेड़ियों के अनाथ बच्चों को भी शरण देकर उन्हें पालने लगते हैं। भेड़ियों का शिकार करने का तरीक़ा सामाजिक होता है - यह अकेले शिकार नहीं करते, बल्कि गिरोह बनाकर हिरण-गाय जैसे चरने वाले जानवरों का शिकार करते हैं। भेड़िये अपने क्षेत्र में शिखर के शिकारी होते हैं जिन्हें मनुष्यों और शरों को छोड़कर और किसी से चुनौती नहीं होती।
भेड़िया एक सामाजिक जानवर है। उन्हें गाँवों के बाहरी इलाकों में देखा जा सकता है। भेड़िए की खोपड़ी लंबी, जबड़े मज़बूत और दाँत पैने होते हैं। उनकी लंबाई 90-105 सेंटीमीटर, कंधे तक की ऊँचाई 60-75 सेंटीमीटर और वजन लगभग 18-27 किलो होता है। भेड़िए सामाजिक जानवर हैं जो झुंडों में शिकार करते हैं। भेड़िए तीन साल के होने पर प्रजनन करने योग्य बनते हैं। भेड़या सामान्यतः एक ब्यात में 3-9 पिल्ले जन्मते हैं। सामान्यताः भेड़िए की आयु लगभग 12-15 वर्ष की होती है। भेड़िए सूपखार मैदान, किसली और भैंसानघाट परिक्षेत्र में देखे जा सकते हैं। यद्यपि कान्हा नेशनल पार्क में भेड़िए अत्यंत दुर्लभ हैं। चीतल, सांभर, जंगली सूअर, सेही एवं मवेशी इनके मुख्य शिकार हैं।
बाघ : -
बाघ जंगल में रहने वाला मांसाहारी स्तनपायी पशु है। यह अपनी प्रजाति में सबसे बड़ा और ताकतवर पशु है। यह तिब्बत,श्रीलंका और अंडमान निकोबार द्वीप-समूह को छोड़कर एशिया के अन्य सभी भागों में पाया जाता है।यह भारत, नेपाल,भूटान, कोरिया, अफगानिस्तान और इंडोनेशिया में अधिक संख्या में पाया जाता है। इसके शरीर का रंग लाल और पीला का मिश्रण है। इस पर काले रंग की पट्टी पायी जाती है। वक्ष के भीतरी भाग और पाँव का रंग सफेद होता है। बाघ 13 फीट लम्बा और 300 किलो वजनी हो सकता है। बाघ का वैज्ञानिक नाम पेंथेरा टिग्रिस है। यह भारत का राष्ट्रीय पशु भी है। बाघ शब्द संस्कृत के व्याघ्र का तदभव रूप है।
इसे वन, दलदली क्षेत्र तथा घास के मैदानों के पास रहना पसंद है। इसका आहार मुख्य रूप से सांभर, चीतल, जंगली सूअर,भैंसे जंगली हिरण, गौर और मनुष्य के पालतू पशु हैं। अपने बड़े वजन और ताकत के अलावा बाघ अपनी धारियों से पहचाना जा सकता है। बाघ की सुनने, सूँघने और देखने की क्षमता तीव्र होती है। बाघ अक्सर पीछे से हमला करता है। धारीदार शरीर के कारण शिकार का पीछा करते समय वह झाड़ियों के बीच इस प्रकार छिपा रहता है कि शिकार उसे देख ही नहीं पाता। बाघ बड़ी एकाग्रता और धीरज से शिकार करता है। यद्यपि वह बहुत तेज रफ्तार से दौड़ सकता है, भारी-भरकम शरीर के कारण वह बहुत जल्द थक जाता है। इसलिए शिकार को लंबी दूरी तक पीछा करना उसके बस की बात नहीं है। वह छिपकर शिकार के बहुत निकट तक पहुँचता है और फिर एक दम से उस पर कूद पड़ता है। यदि कुछ गज की दूरी में ही शिकार को दबोच न सका, तो वह उसे छोड़ देता है। हर बीस प्रयासों में उसे औसतन केवल एक बार ही सफलता हाथ लगती है क्योंकि कुदरत ने बाघ की हर चाल की तोड़ शिकार बननेवाले प्राणियों को दी है। बाघ सामान्यतः दिन में चीतल, जंगली सूअर और कभी-कभी गौर के बच्चों का शिकार करता है। बाघ अधिकतर अकेले ही रहता है। हर बाघ का अपना एक निश्चित क्षेत्र होता है। केवल प्रजननकाल में नर मादा इकट्ठा होते हैं। लगभग साढ़े तीन महीने का गर्भाधान काल होता है और एक बार में 2-3 शावक जन्म लेते हैं। बाघिन अपने बच्चे के साथ रहती है। बाघ के बच्चे शिकार पकड़ने की कला अपनी माँ से सीखते हैं। ढाई वर्ष के बाद ये स्वतंत्र रहने लगते हैं। इसकी आयु लगभग 19 वर्ष होती है।
संरक्षण
बाघ एक अत्यंत संकटग्रस्त प्राणी है। इसे वास स्थलों की क्षति और अवैध शिकार का संकट बना ही रहता है। पूरी दुनिया में उसकी संख्या 6,00 से भी कम है। उनमें से लगभग 4,000 भारत में पाए जाते हैं। भारत के बाघ को एक अलग प्रजाति माना जाता है, जिसका वैज्ञानिक नाम है पेंथेरा टाइग्रिस टाइग्रिस। बाघ की नौ प्रजातियों में से तीन अब विलुप्त हो चुकी हैं। ज्ञात आठ किस्मों की प्रजाति में से रायल बंगाल टाइगर उत्तर पूर्वी क्षेत्रों को छोड़कर देश भर में पाया जाता है और पड़ोसी देशों में भी पाया जाता है, जैसे नेपाल, भूटान और बांगलादेश। भारत में बाघों की घटती जनसंख्या की जांच करने के लिए अप्रैल 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर (बाघ परियोजना) शुरू की गई। अब तक इस परियोजना के अधीन बाघ के 27 आरक्षित क्षेत्रों की स्थापना की गई है जिनमें 36761 वर्ग कि॰मी॰ क्षेत्र शामिल है।
बाघ की केवल पांच जातियाँ शेष
1999 के आकलन के अनुसार, बाघ की शेष पांच जातियों की संख्या इस प्रकार है-
भारतीय बाघ - 3,000 से 4,550
सुमात्राई बाघ - 400 से 500
भारत-चीनी बाघ - 1,200 से 1,700
दक्षिणी चीन का बाघ - 20 से 30
एमूर बाघ - 360 से 400
इस प्रकार 20वीं सदी के अंत में विश्व भर में बाघों की कुल संख्या 5,000 से 7,500 के बीच होने का अनुमान था।
सुमात्राई बाघ - 400 से 500
भारत-चीनी बाघ - 1,200 से 1,700
दक्षिणी चीन का बाघ - 20 से 30
एमूर बाघ - 360 से 400
इस प्रकार 20वीं सदी के अंत में विश्व भर में बाघों की कुल संख्या 5,000 से 7,500 के बीच होने का अनुमान था।
यार्क, अमेरिका के एक वन्यजीव संरक्षण संस्थान ने लुप्त प्राय बाघों के संरक्षण के लिए भारत की 'बेमिसाल प्रतिबद्धता' की तारीफ़ की है। न्यूयार्क की वाइल्ड लाइफ़ कंजर्वेशन सोसायटी (डब्ल्यूसीएस) ने एशिया की विभिन्न सरकारों को चेतावनी दी है कि लुप्त हो रही प्रजातियों को बचाने का उनका समय तेजी से निकल रहा है। कोरिया के जेजु में आयोजित 'वर्ल्ड कंजर्वेशन कांग्रेस' में संस्था ने 5 सितम्बर, 2012 को कहा "भारत ने वर्ष 1972 में प्रोजेक्ट टाइगर की घोषणा के साथ बाघों की जिम्मेदारी ली। ऐसा करके उसने स्पष्ट संदेश दिया कि जंगली बाघों का भविष्य उसके हाथ में है और उनके भविष्य के लिए वह (भारत) पूरी तरह जिम्मेदार होगा।" संस्था ने कहा कि समस्याएँ और चुनौतियाँ अभी भी मौजूद हैं, लेकिन भारत प्रतिबद्ध है कि बाघों का प्रभावी तरीक़े से उनके आवासों में संरक्षण होना चाहिए। भारत के राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकार की ओर से 28 मार्च, 2011 को जारी बाघ गणना रिपोर्ट के मुताबिक बाघों की संख्या कम से कम 1,571 और अधिक से अधिक 1,875 है!
तेन्दुआ : -
तेन्दुआ (Panthera pardus उचारण: पैन्थेरा पार्डस) पैन्थरा जीनस का एक विडाल (बड़ी बिल्ली प्रजाति) है जो अफ़्रीका औरएशिया में पाया जाता है। यह विडाल प्रजातियों जैसे शेर, बाघ और जैगुअर की तुलना में सबसे छोटा होता है। तेन्दुए अधिकांशतः पीली चमड़ी के होते हैं जिसपर गहरे रंग के धब्बे होते हैं। लेकिन तेन्दुओं की विभिन्न उपप्रजातियों में बहुत से अन्तर भी हो सकते हैं। कुछ तेन्दुए पूर्ण रूप से काले भी होते हैं, औन उन्हें काला पैन्थर कहा जाता है। नर तेन्दुए, मादा तेन्दुओं से लगभग 30% बड़े आकार के होते हैं।
तेन्दुए मूल रूप से पूरे अफ़्रीका और दक्षिण एशिया में रहते आए हैं। लेकिन अब तेन्दुओं की बहुत सी उपप्रजातियाँ, विशेषकर एशिया में, विलुप्ती के कगार पर हैं। अन्य बड़ी बिल्लीयों की तुलना में तेन्दुए सबसे बड़े क्षेत्रों में रहते हैं और इस कारण इनकी बहुत सी उपप्रजातियाँ पाई जाती हैं। तेन्दुए विभिन्न पर्यावरणों में रहते हैं जैसे: वर्षावन, वन, पर्वत और सवाना।
उपप्रजातियाँ
आज तेन्दुरों की नौ उपप्रजातियाँ पहचानी गई हैं; जिनमें एक अफ़्रीका में और आठ एशिया में हैं:
- अफ़्रीकी तेन्दुआ
- अमूर तेन्दुआ
- अरबी तेन्दुआ
- भारतीय तेन्दुआ
- हिन्दचीनी तेन्दुआ
- जावाई तेन्दुआ
- उत्तर चीनी तेन्दुआ
- फ़ारसी तेन्दुआ
- श्रीलंकाई तेन्दुआ
भालू : -
भालू या रीछ उरसीडे (Ursidae) परिवार का एक स्तनधारी जानवर है। हालांकि इसकी सिर्फ आठ ज्ञात जातियाँ हैं इसका निवास पूरी दुनिया में बहुत ही विस्तृत है। यह एशिया, यूरोप, उत्तर अमेरिका और दक्षिण अमेरिका के महाद्वीपों में पाया जाता है। देखने में, सभी भालुओं के आम लक्षणों में बड़ा शरीर, मोटी टाँगे-बाज़ू, लम्बा बुक्क (नाक), पूरे बदन पर घने बाल और पाँव में सख़्त नाख़ून शामिल हैं। ध्रुवी भालू (पोलर बेयर) अधिकतर मांस-मछली ही खाता है और बड़ा पांडा (जायंट पांडा) सिर्फ़ बांस के पत्ते-टहनियाँ खाता है, लेकिन भालुओं की अन्य छह जातियाँ सर्वाहारी होती हैं और मांस और वनस्पति दोनों खाती हैं।
भालू अकेला रहना पसंद करते हैं और झुंडों में नहीं। केवल बच्चे जनने के लिए नर और मादा साथ करते हैं और फिर अलग हो जाते हैं। बच्चों के पैदा होने के बाद, ये छोटे भालू कुछ समय के लिए अपनी माँ का साथ रखते हैं। भालू ज़्यादातर दिन के समय ही सक्रिय होते हैं, हालांकि कभी-कभी रात को भी घूमते हुए या खाना ढूंढते हुए पाए जा सकते हैं। उनकी सूंघने की शक्ति बहुत तीव्र होती है। देखने में भारी-भरकम लगने के बावजूद भालू तेज़ी से दौड़ सकते हैं और उन्हें पेड़ों पर चढ़ने और पानी में तैरने की भी अच्छी क्षमता होती है। ये अक्सर ग़ुफ़ाओं या ज़मीन में बड़े गड्ढों में अपना घर बनाते हैं और भालू की कुछ जातियाँ शीतनिष्क्रियता (सर्दियों के मौसम को सो कर गुज़ारना) प्रदर्शित करती हैं।
उपजातियाँ
भालू की अपजातियाँ रंग, वजन, बाल आदि के आधार पर बाँटा गया है : -
काला भालू
यह सबसे प्रमुख भालू है तथा सीधा सादा होता है। जीवशालाओं में इसे देखा जा सकता है। सिखाने पर यह कई प्रकार के खेल कर सकता है, जिनसे लोगों का मनोरंजन होता है। यह उत्तरी अमेरिका के अन्य सभी भालुओं में से छोटा होता है। इसका औसत भार 200 से 350 पाउंड तक होता है। अधिकांश भालू काले होते हैं, किंतु इस जाति के कुछ भालुओं की नाक के ऊपर तथा कुछ की छाती पर सफ़ेद दाग़ होता है। कुछ भालुओं क बाल भूरें भी होते हैं। अपने वजन एवं आकार के कारण आवश्यकता पड़ने पर, ये तेज़ी से दौड़ तथा पेड़ों पर चढ़ सकते हैं। इनमें से कुछ भालू खतरनाक भी होते हैं, यद्यपि देखने में शरमीले मालूम पड़ते हैं। ये चिढ़ाने या घायल होने पर ही मनुष्यों पर हमला करते हैं। काले भालू सर्दियों का अधिकांश समय ज़मीन पर खोदे गए गढ्डों, गुफ़ाओं या खोखले पेड़ों में सोकर ही बिताते हैं। सर्दियों के मध्य में मादा बच्चे देती हैं। ये बच्चे सात से नौ इंच लंबे तथा लगभग आधा पाउंड भार वाले होते हैं। बच्चों के शरीर पर बाल कम होते हैं तथा आँखें एक मास तक बंद रहती हैं। लगभग दो मास के बाद ही ये अपनी माँद से बाहर निकलते हैं। काले भालू की आयु 15 से 25 वर्ष तक होती है।
श्वेत भालू
यह उत्तरी अमेरिका के सभी जानवरों से अधिक खतरनाक होता है। इसक भार 1,000 पाउंड तक पाया जाता है। ये भूरे पीले धूमवर्ण के होते हैं। इनके पंजे बड़े होते हैं, किंतु नाख़ून पैने न होने के कारण ये पेड़ों पर कम चढ़ पाते हैं। ये मेक्सिको से उत्तरी अलैस्का तक तथा अन्य भागों में भी पाए जाते हैं। ये हिरण, भैंस, घोड़ा तथा अन्य पशुओं पर भी आक्रमण कर देते हैं। अब इनकी संख्या शिकार के कारण काफ़ी कम हो गई है और ये केवल घने जंगलों में ही मिलते हैं। यह सर्दियों में सुप्तावस्था में न रहकर, सभी मौसमों में दिन रात अपने शिकार की खोज में घूमा करते हैं।
ध्रुवीय भालू
ये अमेरिका तथा एशिया के आर्कटिक भागों में पाए जाते हैं। सील, वॉलरस, मछलियाँ तथा अन्य मरे जानवर इनका मुख्य आहार है। ये कुशल तैराक भी होते हैं। ये भालू केवल ध्रुवों तक ही सीमित रहते हैं।
भूरे रंग के भालू
ये यूरोप तथा एशिया में मिलते हैं। इन्हें बाँधकर पालतू भी बनाया जा सकता है। इन्हीं भालुओं से इंग्लैड में सैकड़ों वर्षो तक एक प्रकार का खेल कराया जाता रहा है, जिसमें कई कुत्तों को एक ही बार में भालू के ऊपर छोड़ा जाता है। भारत में इस जाति के भालू हिमालयमें पाए जाते हैं। इसकी लंबाई सात फुट होती है।
स्लोथ भालु
यह भारत तथा श्रीलंका में अधिक पाया जाता है। इसके बाल काले तथा लंबे होते हैं। पंजा भी लंबा होता है। यह शहद तथा छोटे छोटे कीड़ों मकोड़ों को खाता है। यह भालू मलाया, बोर्नियो तथा सुमात्रा में भी पाया जाता है।
भूरे भालू तथा भालुक के अतिरिक्त भारत में माम या बालूची हिमालय में, मलाया भालू गारो पहाड़ में तथा पंडा दक्षिण-पूर्वी हिमालय में मिलते हैं।
बारहसिंगा : -
बारहसिंगा या दलदल का मृग (Rucervus duvaucelii) हिरन, या हरिण, या हिरण की एक जाति है जो कि उत्तरी और मध्य भारत में, दक्षिणी-पश्चिम नेपाल में पाया जाता है। यह पाकिस्तान तथा बांग्लादेश में विलुप्त हो गया है। बारहसिंगा का सबसे विलक्षण अंग है उसके सींग। वयस्क नर में इसकी सींग की 10-14 शाखाएँ होती हैं, हालांकि कुछ की तो 20 तक की शाखाएँ पायी गई हैं। इसका नाम इन्ही शाखाओं की वजह से पड़ा है जिसका अर्थ होता है बारह सींग वाला। मध्य भारत में इसे गोइंजक (नर) या गाओनी (मादा) कहते हैं।
वयस्क नर कन्धे तक 132 से.मी. तक हो सकता है और इसका वज़न 170-180 कि. तक हो सकता है। औसतन सींग की लंबाई घुमाव के साथ 75 से.मी. और सींगों के बीच की परिधि 13 से.मी. तक होती है। सींगों की रिकॉर्ड लंबाई 104.1 से.मी. देखी गई है। नर बारहसिंगा के शरीर का रंग मादा से अधिक गहरा होता है। ग्रीष्म ऋतु में इसके शरीर का पीला-भूरा होता है, जिस पर हल्की चित्तियाँ देखी जा सकती हैं। शीतकाल में शरीर पर बाल अधिक उगने से यह चित्तियाँ बालों में ही छिप जाती हैं। नवजात शावकों के शरीर पर सफ़ेद रंगके स्पष्ट धब्बे देखे जाते हैं, जो आयु बढ़ने के साथ-साथ विलुप्त होने लगते हैं।
यह वन्य प्राणी प्राय: चरने के लिए प्रात: या शायं काल ही दिखायी पड़ते हैं। दिन में यह आराम करते हैं। इनकी दृष्टि एवं श्रवण शक्ति, सूंघने की शक्ति के समान तेज रहती है। बारहसिंगा मादाएँ लगभग 8 महीने के गर्भाधान काल के बाद एक समय में केवल एक बच्चे को जन्म देती है। यह दुर्लभ जाति का प्राणी है। इसे अनुसूची प्रथम में रखा गया है।
बारहसिंगा दलदली हिरण (सर्वस डुवाउसेली) की एक उपप्रजाति है, जिसने मध्य भारत के कड़ी ज़मीन वाले वास स्थलों में रहने के लिए अपने आपको ढाल लिया है। बारहसिंगा यह एक घास-भक्षी हिरण है, तथा इसकी आहार सूची में मात्र गिनी-चुनी ही घास प्रजातियाँ शामिल हैं। ये जलीय पौधों को बड़े चाव से खाते हैं। इसकी खाल, जो लगभग ऊनी होती है, भूरे से लेकर पीलापन लिए भूरे तक की किसी भी रंग की होती है। नर की गर्दन पर हल्की सी अयाल होती है। वह अधिक गहरे रंग का होता है।
निवास स्थान
बारहसिंगा हिरण प्रजाति दलदली इलाके में रहना पसंद करती हैं। विशेषीकृत निकेत में निवास करता है।बारहसिंगों को देखने के अच्छे स्थल हैं सौंफ, रौंदा और उरनाखेरो, जो सभी कान्हा पार्क परिक्षेत्र में हैं तथा बिशनपुरा मैदान, सोंढ़र मैदान, औरई मैदान और सोंढ़र तालाब, जो मुक्की परिक्षेत्र में हैं।
बंदर : -
बंदर एक मेरूदण्डी, स्तनधारी प्राणी है। इसके हाथ की हथेली एवं पैर के तलुए छोड़कर सम्पूर्ण शरीर घने रोमों से ढकी है। कर्ण पल्लव, स्तनग्रन्थी उपस्थित होते हैं। मेरूदण्ड का अगला भाग पूँछ के रूप में विकसित होता है। हाथ, पैर की अँगुलियाँ लम्बी नितम्ब पर मांसलगदी है।
'प्लोस वन' में छपे शोध निष्कर्षों के अनुसार अमरीका के ड्यूक विश्वविद्यालय में शोधकर्ताओं के अनुसार बंदर भी इंसान की तरह ही फ़ैसला करते और खीझते हैं। फ़ैसला करने के भावनात्मक परिणाम- निराशा और दुख दोनों ही बंदर प्रजाति में भी मूलभूत रूप से मौजूद हैं और यह सिर्फ़ इंसानों का आद्वितीय गुण नहीं है।
लामा : -
लामा (Lama glama), एक कैमिलिड पशु है जो दक्षिण अमेरिका में पाया जाता है। इसे एक पालतू पशु के रूप में एंडियनलोगों द्वारा प्रागैतिहासिक काल से भी पहले से पाला जाता है और यह उनकी बोझा ढोने, ऊन और मांस की आवश्यकताओं को पूरा करता है। पूर्ण विकसित लामा की ऊँचाई 1.7 मीटर (5.5 फुट) से 1.8 मीटर (6 फुट) तक होती है। इनका वजन 130 किग्रा (280 पाउंड) and 200 किग्रा (450 पाउंड) के बीच होता है। जन्म के समय एक लामा छौने, जिसे क्रिआ कहते हैं का वजन 9.1 किग्रा (20 पाउंड) and 14 किग्रा (30 पाउंड) के बीच हो सकता है।
लामा एक सामाजिक पशु है और यह दूसरे लामाओं के साथ झुंड में रहना पसन्द करते हैं। इनसे प्राप्त ऊन अत्यन्त मुलायम और लैनोलिन (अंग्रेजी: Lanolin; ऊन का मोम) से मुक्त होता है। लामा एक बुद्धिमान प्राणी है जो किसी सरल काम को कुछ प्रयासों के बाद करना सीख सकता है। यदि किसी लाम को बोझा ढोने के काम में लगाया जाये तो यह अपने वजन का 25% से 30% तक वजन कुछ मीलों तक ढो सकते हैं।
लामाओं का प्रादुर्भाव उत्तरी अमेरिका के मैदानों में लगभग 4 करोड़ वर्ष पहले हुआ था। जहां से प्रवास कर दक्षिण अमेरिकामें आये। पिछले हिमयुग के अंत में (10,000–12,000 वर्ष पहले) उत्तरी अमेरिका से कैमेलिड विलुप्त हो गये। 2007 तक दक्षिण अमेरिका में लगभग 70 लाख लामा और अलपाका थे और 20 वीं सदी के अंत में आयात होने के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में इनकी संख्या क्रमश: 158000 और 100000 के करीब है।