भू-भौतिकी विज्ञान के उप-भाग - Study Search Point

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भू-भौतिकी विज्ञान के उप-भाग

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प्रयोग और सिद्धांत की नई प्रविधियों और औजारौं की प्रयुक्ति भूसमस्याओं पर करने के साथ साथ अन्वेषण के नए नए क्षेत्र प्राप्त होते गए, जिनका समावेश भूभौतिकी में कर लिया गया। अब भूभौतिकी के निम्नलिखित लगभग दस उपविभाग है : (ग्रह विज्ञान), वायुविज्ञान, मौसम विज्ञान, जलविज्ञान, समुद्र विज्ञान, भूकंप विज्ञान, ज्वालामुखी विज्ञान, भूचुंबकत्व, भूगणित और विवर्तनिक भौतिकी (Tectonic physics)। अनुप्रयुक्त भू-भौतिकी के अंतर्गत धरती की सतह पर भौतिक मापनों से अधस्तल (subsurface) की भौमिक सूचनाएँ प्राप्त होती है। इसे भूभौतिक पूर्वेक्षण भी कहते हैं और इसका उद्देश्य उपयुक्त उपकरणों से घनत्व वैषम्य, प्रत्यास्थी गुणधर्म, चुंबकत्व विद्युत्संवाहकता और रेडियोएक्टिवता आदि मापकर पेट्रोलियम पानी, खनिज और रेडियोऐक्टिव तथा खंडनीय पदार्थों का स्थान निर्धारण करना है। भूभौतिक अनुसंधानों और प्रेक्षणों का समन्वय करने के लिये 'इटरनेशनल यूनियन ऑव जिमॉडिसि ऐंड जिओफिजिक्स' नामक संस्था का संगठन किया गया है। इसे संसार के सभी राष्ट्रों के राष्ट्रीय भूभौतिक संस्थानों का सक्रिय सहयोग प्राप्त है। इस संस्था की भूभौतिक मापनों के कार्यक्रम की सक्रियता कभी कभी एक दो वर्षों के लिये काफ़ी तेज हो जाती है, जैसे अतीत में दो बार अंतरराष्ट्रीय भूभौतिक वर्ष सन्‌ 1957-1958 में ऐसा किया गया।
भूभौतिकी में सभी भौतिक प्रक्रमों और पृथ्वी के केंद्र से वायुमंडल के शीर्षस्थ तक के सब पदार्थों के गुणों का अध्ययन तथा अन्य ग्रहों के संबंध में इसी प्रकार का अध्ययन होता है। इसकी सभी शाखाओं के विषयक्षेत्र का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत है:

ग्रह विज्ञान

यह विज्ञान चंद्रमाबुधशुक्रमंगलबृहस्पति आदि ग्रहों के पृष्ठ और पर्यावरण के अध्ययन की वैज्ञानिक विधियों से संबंधित है। इससे जो जानकारी मिलती है,श् वह मनुष्य की ज्ञानराशि की अभिवृद्धि करती ही है, साथ ही उसकी भावी अंतरिक्षयात्रा में भी सहायक होती है। मापन के लिये भूस्थित स्पेक्ट्रमी प्रकाशलेखी रेडियो और रेडियोमापी विधियों का प्रयोग किया जाता है। रेडा और रेडियो आवृत्तियों के विस्तृत परास (range) का उपयोग करके ग्रहों की पृष्ठीय रुक्षता, गहराई, भौतिक गुण, धूल परत और वायुमंडल का निर्धारण संभव होता है। ग्रहों के गुरुत्व, चुंबकी क्षेत्र, दाबताप, पृष्ठीय भूविज्ञान और वायुमंडल की विद्युत्‌ अवस्था ज्ञात करने की विधियों का आविष्कार किया जा चुका है। कृत्रिम उपग्रह तथा उपग्रह पर स्थित उपकरणों से अन्य ग्रहों पर जीवन या वनस्पति की उपस्थिति, या इनके अनुकूल परिस्थिति, की छानबीन की जा रही है। निकट भविष्य में रेडियो तारा उपगूहन (occultation) और द्विस्थैतिक रेडार (bistatic radar) के प्रयोगों से सौर किरीट, अयनमंडल तथा ग्रहीय वायुमंडल के बारे में बहुत सी बातें मालूम हो जाएँगी।

वायु विज्ञान (Aeronomy)

विज्ञान की यह शाखा सौ किलोमीटर से अधिक ऊँचाई के पृथ्वी के वायुमंडल की घटनाओं से संबंधित है। इतनी ऊँचाई पर हवा अत्यधिक आयनित होती है, परमाणु और इलेक्ट्रॉनों के औसत मुक्तपथ (mean free path) दीर्घ होते हैं और वहाँ पदार्थों का भौतिक व्यवहार जितना घनत्व और अन्य संहति गुणों पर निर्भर करता है उतना या उससे अधिक विद्युत गुणों पर निर्भर करता है। पृथ्वी के वायुमंडल की बाह्य सीमा को भी स्पष्ट पृष्ठ नहीं है, बल्कि अंतर्ग्रहीय अवकाश में सापेक्ष रिक्ति की ओर इसका क्रमश: संक्रमण है। इस संक्रमण के कटिबंधों में पृथ्वी के वायु मंडलीय पदार्थों और बाहर से आनेवाले विकिरणों और कणों में निरंतर परस्पर क्रिया होती है। वायुविज्ञान इन घटनाओं और भूपरिस्थियों पर इनके महत्व से संबंधित है। लगभग 300 किलोमीटर ऊँचाईं पर वायुमंडल का ताप लगभग 1500° सेंटीग्रेंड है। अत: पृथ्वी के वायुमंडल के निचले फैलाव के ऊपर उड्डयन में सुरक्षा के लिये ऊँचाइयों पर वायुमंडल के गुणों का अध्ययन बहुत आवश्यक है।

मौसम विज्ञान

यह वायुमंडल और भूपृष्ठ के निकटवर्ती वायुमंडल की विभिन्न घटनाओं से संबंधित हवा और मौसम का विज्ञान है। मौसम विज्ञानी ताप, दाब, पवन, मेघ, वर्षण आदि वायुमंडल के लक्षणों को प्रेक्षित करके, बाह्य प्रभावों और भौतिकी के मौलिक नियमों के आधार पर, वायुमंडल की प्रेक्षित संरचना और उद्भव की व्याख्या करने का प्रयत्न करता है। पवन और मौसम के जैसे प्रेक्षित चरों (variables) के प्रतिमानों (patterns) के आनुभविक संबंधों को खोज और व्याख्या करने योग्य समस्या के रूप में उभारकर, विज्ञान की प्रयुक्ति के लिये आवश्यक बातों की व्यवस्था करने का प्रयत्न किया जाता है। किसी भी स्थान के तथा किसी भी समय के वायुमंडलकी दशा की जानकारी के लिसे हवा की भौतिकी और संघटन का ज्ञान आवश्यक है। वर्ष भर की मौसमी अवस्थाओं के मिश्र सामान्यकरण से जलवायु का स्वरूप संघटित होता है। संक्षिप्त मौसम विज्ञान के अंतर्गत, व्यापक क्षेत्र में एक ही समय में किए गए प्रेक्षणों के आधार पर, वायुमंडलीय लक्षणों का विवेचन होता है। मौसम विज्ञानीय खोजों में ऊष्मागतिक और द्रवगतिक सिद्धांतों का प्रयोग सहकारी रूप में द्रुत गति से किया जा रहा है। आधुनिक काल में मौसम पूर्वानुमान और भौतिक जलवायु विज्ञान, इन दोनों का आधार वायुमंडल में प्राकृतिक रूप से उत्पन्न गतियों का अध्ययन है। गतिज मौसम विज्ञान के अंतर्गत वायुमंडल में सहज रूप से उत्पन्न गति तथा उससे संबंद्ध ताप, दाब, घनत्व और आर्द्रता के वितरणों का अध्ययन होता है। यह मौसम के पूर्वानुमान और जलवायु विज्ञान का आधार है।

जल विज्ञान

यह पानी, उसके गुण, वितरण और स्थल पर परिसंचरण (circulation)का विज्ञान है। यह विज्ञान भुपृष्ठस्थ पानी, मिट्टी में स्थित पानी, अध:स्थ शैलजल, वायुमंडल में जल संबंधी पक्ष और जो बातें भूपृष्ठ पर वाष्पीकरण तथा वर्षण को प्रभावित करती हैं, उनसे संबंधित है। इसमें हिमानी विज्ञान, अर्थात्‌ हिम (snow) और बर्फ (ice) के रूप में भूजल का अध्ययन, समाविष्ट है। चूँकि आधुनिक जल विज्ञान में जल संबंधी मात्रिक अध्ययन किया जाता है अत: यह एक महत्त्वपूर्ण विषय है। जलविज्ञानीय चक्र, जिसके अनुसार जल समुद्र से वायुमंडल में और वायुमंडल से स्थल पर आता है और अंत में समुद्र में पहुँच जाता है, जल विज्ञान का आधार है। वर्षण के बाद जल की अवस्थाओं का अध्ययन जल विज्ञान में होता है। हिमनदी की प्रगति और प्रत्यावर्तन की दर से भी यह विज्ञान संबंद्ध है। जल विज्ञान में जल की प्राप्ति, गति और कार्य संबंधी सिद्धांत है। जल विज्ञान में जल की प्राप्ति, गति और कार्य संबंधी सिद्धांत और नियमों को प्रतिपादित करनेवाले मूल आँकड़ों का अध्ययन समाविष्ट है।

समुद्र विज्ञान

इसमें समुद्र का वैज्ञानिक अध्ययन होता है तथा समुद्र की द्रोणी की आकृति और बनावट, समुद्री पानी के भौतिक और रासायनिक गुण, समुद्रीधारा, तरंग तथा ज्वार का अध्ययन समाविष्ट है। इसमें पृथ्वी की ठोस तथा गैस अवस्थाओं के साथ समुद्र के सारे प्रक्रमों की व्याख्या करने की कोशिश की जाती है। आधुनिक समुद्र विज्ञान प्रयोगशालीय अध्ययन के साथ ही उपयुक्त जलयानों की सहायता से समुद्र विज्ञानीय सर्वेक्षण का विषय है। समुद्री पानी, तलछट और जैव नमूनों को एकत्र करने तथा परखने के उपकरणों से सज्जित, अनुसंधान पोत समुद्र के अनंत विस्तार की छानबीन करते ही रहते हैं। समुद्री धाराओं का गतिविज्ञान ओर ऊष्मागतिकी, बड़े पैमाने पर बहनेवाली समुद्री और वायुवाहित धाराओं के सिद्धांत तथा गहरे जल का परिसंचरण, इन सबकी समस्याएँ वायुमंडल की संगत समस्याओं से मिलती जुलती है। समुद्र और वायुमंडल में वाष्पीकरण तथा ऊष्मा विनिमयन प्रक्रमों का मौसम विज्ञान में बहुत महत्व है। समुद्री पानी के अधिकांश गुण ताप, खारापन और दाब पर निर्भर करते हैं। जिन्हें उपकरणों की सहायता से प्रत्यक्ष रूप से ज्ञात किया जा सकता है। मनुष्य के लिये मछलियाँ और खनिज आर्थिक महत्व के है। रेडियोऐक्टिव विधियों से महासागरीय तलछटों का काल निर्धारित किया जाता है।

भूकंप विज्ञान

यह भूकंपों तथा भूकंप तरंगों से उद्घाटित पृथ्वी की अंतरंग अवस्था का विज्ञान है। यह एक नूतन विज्ञान है, जिससे पृथ्वी के अंतरंग के बारे में काफ़ी महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हुई है, भूकंप विज्ञान की महत्त्वपूर्ण प्रगति का आरंभ लगभग 1880 ई. में भूकंपलेखी उपकरण के आविष्कार के साथ हुआ। भूकंप, या विस्फोट, उन भूकंपतरंगों के स्रोतों को प्रस्तुत करता है जो पृथ्वी के अंतरंग में प्रसारित होती हैं और जिनका निर्गत भूकंपलेखी द्वारा अंकित होता है। तरंगविश्लेषण से अधस्तल (subsurface) की बनावट और कभी कभी स्रोत की क्रियाविधि भी ज्ञात हो जाती है विस्फोटों ओर भूकंपों से उत्पन्न भूकंपतरंगे भूगति उत्पन्न करती है। लघुतम और बृहत्तम भूगति में 108 गुना का विचलन हो सकता है। इसलिये अनेक प्रकार के भूकंपलेखियों की अभिकल्पना हुई है, जैसे लोलक और विकृति भुकंपलेखी। लोलक भूकंपलेखी श्लथ युग्मित, जड़त्वीय द्रव्यमान (loosely coupled inertial mass) और भूमि के मध्य की सापेक्ष गति को मापता है। कुछ उपकरणों में प्रकाशीय आवर्धन (optical magnification) का उपयोग किया जाता है और कुछ में विद्युच्चुंबकीय ट्रांसडयूसर (electromagnetic transducer), धारामापी, इलेक्ट्रॉनिक प्रवर्धक (amplifier) और प्रकाश विद्युत्‌ सेल के उपयोग से उच्चतर आवर्धन प्राप्त किया जाता है। रैखिक विकृति (linear strain) भूकंपलेखियों में आधार शैल पर 100 फुट के अंतर पर दो स्तंभ स्थिर किए जाते हैं। एक स्तंभ से संगलित स्फटिक की दृढ़ नली संबंद्ध होती है। अनुदैर्ध्य दिशा में नली की स्वातंत्रय संख्या एक होती है और ख़ाली जगह में स्थित एक सूक्ष्मग्राही ट्रांसडयूसर, नली के कंपनों का संसूचन करता है। भूकंपकेंद्र से ऊर्जा तीन प्रकार की तरंगों के रूप में चलती है, जिन्हे प (P) या अनुदैर्ध्य तरंग, स (S) या अनुप्रस्थ तरंग ओर पृष्ठ तरंग कहते हैं। स तरंग तरल पदार्थ में यात्रा नहीं कर सकती। तरंगवेग माध्यम के प्रत्यास्थ स्थिरांक और घनत्व पर निर्भर करता है। भूकंपलेखी के अंकनों से अनुर्दर्ध्य और अनुप्रस्थ तरंगों को पहचाना जा सकता है। वेग-गहराई वक्र के विश्लेषण से पृथ्वी के अंतरंग के अनेक उपविभागों का नामकरण संभव है। इन प्रविधियों से ही हम जानते है कि पृथ्वी के केंद्र में लोह निकल क्रोड है, जिसका अर्धव्यास पृथ्वी के अर्धव्यास के आधे से अधिक है।

ज्वालामुखी विज्ञान

यह ज्वालामुखी और उससे संबंधित घटनाओं का विज्ञान है, जो मैग्मा (magma) और संबद्ध गैसों के पृष्ठीय उद्भेदन तथा उससे उत्पन्न संरचनाओं, निक्षेपों और अन्य प्रभावों से संबद्ध है। पृथ्वी के पृष्ठ पर जो प्रभाव देखने में आते हैं, वे गहराई की घटनाओं के परिणामस्वरूप होते हैं। अत:श् ज्वालामुखी विज्ञान में अधिकांश वितलीय (plutonic), मैग्मज (igneous) भूविज्ञान सम्मिलित रहता है। पर्वतन (orogenic) और अन्य पटल-विरूपणी (diastrophic) बलों से भूपृष्ठ में उत्पन्न दरारें वे वाहिकाएँ हैं, जिनसे मैग्मा पृष्ठ की ओर उठता है। दरारों की चौड़ाई लगभग 1 फुट से लेकर 10 फुट से अधिक तक हो सकती है। उद्भेदी तरल, गैस या लावा शंक्वाकार पर्वत की रचना करते हैं। इस क्रोड़ के केंद्र या बगल से पुन: उद्भेदन हो सकता है। उद्भेदी मैग्मा तरल शैल का बना होता है, जिसमें गैसें घुली होती हैं। लावा का ताप और उसकी श्यानता (viscosity) विशिष्ट उपकरणों से मापी जाती है। ज्वालामुखी उद्भेदन का स्वरूप मुख्यत: तरल मैग्मा से निर्धारित होता है। उदभेदन कई प्रकार के होते हैं, जिनका नामकरण ज्वालामुखी के नामपर, या जिस क्षेत्र में ज्वालामुखी होता है उसके नाम पर, करते हैं मापने से पता चला है कि पर्वत के नीचे एक प्रकार के आगार में मैग्मा के अंत:क्षेपण से पहले सारा ज्वालामुखी पर्वत फूल जाता है। उद्भेदन के समय, या ठीक बाद ही, ज्वालामुखी पर्वत सिकुड़ते हैं। ज्वालामुखीय उद्भेदन से पहले अनेक भूकंप होते हैं। इन उद्भेदनों से वायुमंडल में आघात तरंगे उत्पन्न होती हैं। कभी कभी पानी के अंदर ज्वालामुखीय विस्फोट होने पर, भीमकाय भूकंपी सिधुतरंगें (tsunamis) उत्पन्न होती हैं। भूचुंबकत्व या पृथ्वी के चुबंकत्त्व का विवेचन करनेवाली विज्ञान की शखा है। पृथ्वी एक विशाल चुंबक है, जिसका अक्ष लगभग पृथ्वी के घूर्णन अक्ष पर पड़ता है। पृथ्वी के भूचंबकीय क्षेत्र का स्वरूप प्रधानत: द्वध्रुवी है और यह पृथ्वी के गहरे अंतरंग में उत्पन्न होता है। क्रोड के अक्ष ध्रुव पर चुंबकीय तीव्रता 5 गाउस है। निर्बाध विलंबित चुंबकीय सुई से दिक्पात, अर्थात चुंबकीय बलरेखा और क्षितिज के बीच का कोण, ज्ञात होता है। विश्व की अनेक चुंबकीय वेधशालाओं में नियमित रूप से चुंबकीय अवयवों का मापन निरंतर किया जाता है। ये अवयव हैं, दिक्पात, दि (D), नति, न (I), तथा पार्थिव चुंबकीय क्षेत्र की संपूर्ण तीव्रता ब (F), जिसके घटक, क्ष (H), क (X), ख (Y) तथा ग (Z) हैं। इन अवयवों का दीर्घकालीन परिवर्तन, शताब्दियों बाद हुआ करता है। क्यूरी (Curie) बिंदु से निम्न ताप पर शीतल हुआ ज्वालामुखी लावा, जमती हुई तलछट और प्राचीन ईटं, प्रेरित चुंबकत्व का अध्ययन पैलियोमैग्नेटिज्म (Palaeomagnetism) कहलाता है और शताब्दियों, सहस्त्राब्दियों, या युगों पूर्व के भूचुंबकीय परिवर्तनों की जानकारी प्रदान करता है। पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में होनेवाले बड़े विक्षोभों को चुंबकीय तूफान कहते हैं। चुंबकीय तूफानों की तीव्रता ध्रुवीय प्रकाश के क्षेत्रों में सर्वाधिक होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि सूर्यश् से निष्कासित, आयनित गैसों की धाराओं या बादलों से, जो पृथ्वी तक पहुँच जाते हैं, चुंबकीय तूफानों की उत्पति होती है। असामान्य सूर्य धब्बों की सक्रियता के अवसरों पर अनियमित या क्षणिक चुंबकीय परिवर्तन हुआ करते हैं। माप के लिये अनेक प्रकार के चुंबकत्वमापी हैं। निरपेक्ष चुंबकत्व किसी कुंडली में प्रवाहित विद्युतद्धारा के ज्ञात क्षेत्र औरश् भूचुबंकीय क्षेत्र की तुलना पर आधारित होते हैं। परिवर्ती प्रेरकत्व (variometers) गौण यंत्र है और सापेक्ष मापन करते हैं। फ्लक्स गेट (flux gate) चुंबकत्वमापी और प्रोटॉन चुंबकत्वमापी अधिक सूक्ष्मग्राही हैं।

भूगणित

यह पृथ्वी के आकार, विस्तार और गुरुत्वीय क्षेत्र का विज्ञान है। इसके अंतर्गत गुरुत्वीय अपकेंद्री क्षेत्रों के मापनों से निर्धारित पृथ्वी के पृष्ठ के ऊपर जहाँ तक गुरुत्वीय क्षेत्र के प्रभाव की पहचान संभव है वहाँ तक उसके वितरण का अध्ययन भी इसके अंतर्गत होता है। भूभौतिकी कीश् अन्य शाखाओं की सहायता से भूगणित द्वारा भूपटल की बनावट और संलग्न अध:स्तर (substrata) की बनावट का अध्ययन किया जाता है सम्यक्‌ भूमापन (mapping) और चार्ट निर्माण के लिये आवश्यक मापन और परिकलन करना भूगणित का व्यावहारिक उद्देश्य है। पृथ्वी के बड़े वृत्त के एक चाप अ (a) को भूगणितीय विधि से मापकर और वक्रताकेंद्र पर इस चाप द्वारा बनाए कोण a को खगोलिय विधि से मापकर पृथ्वी का आकार और विस्तार निर्धारित किया जाता है। अ (a) और a के अत्यंत यथार्थ मान प्राप्त करने की आधुनिक तकनीकियों में त्रिभुजा (triangulation), शोरन (Shoran), हिरन (Hiran) और अन्य वैद्युत एवंश् अन्य खगोलिय विधियाँ सम्मिलित हैं, जिनमें कृत्रिम उपग्रह और अत्यंत परिष्कृत खगोलीय दूरबीनों और संक्रमणों का उपयोग होता है। त्रिभुजन विधि का आधार यह है कि किसी भी त्रिभुज का आधार और दो कोण ज्ञात हों, तो त्रिभुज पूर्णत: निश्चित हो जाता है। इस त्रिभुज की एक भुजा को आधार बनाकर उत्तरोत्तर त्रिभुजों से सारे क्षेत्र को पाट देते हैं। पृथ्वी का अंतरांश दृढ नहींश् है, अत: सूर्य और चंद्र के आवर्ती ज्वारीय बल से भूपटल निरस्त हो जाता है इस ज्वारीय प्रभाव को गुरुत्वमापी से मापा जाता है।

विवर्तनिक भौतिक

श्यह भूवैज्ञानिक रचनाओं के निर्माण में संलग्न भौतिक प्रक्रियाओं का विज्ञान है। इसमें पृथ्वी के विस्तृत रचनात्मक लक्षणों और उनके कारणों, जैसे पर्वतरचना, शैलयांत्रिकी एवं शैल का सामर्थ्य तथा उससे संबद्ध भौतिक गुणों, का मापन तथा अध्ययन किया जाता है भूवैज्ञानिक समस्याओं में भौतिकी के अनुप्रयोग से विवर्तनिक भौतिकीविद् को पृथ्वी के संबंध में अनेक गूढ़ जानकारियाँ प्राप्त करने का सुयोग मिला है। अब भूपटल और उच्च प्रावार (upper mantle) के अध:स्तर एवं स्थल सतह के अनेक उपविभाग करना संभव हो गया है। मध्य महासागरीय एवं महाद्वीपी विभंग (fracture) पद्धति के भूवैज्ञानिक और भूभौतिक लक्षणों से प्रकट है कि यह दो प्रकार के अवयवों से जिन्हें प्राथमिक और गौण चाप कहते हैं, बना है और विकास की भिन्न भिन्न अवस्थाओं में इनकी अनेक पुनरावृत्तियाँ हो चुकी हैं। भूपटल और ऊपरी प्रावार में भूवैज्ञानिक युटिजनक बल और उनके पैटर्नी महाद्वीपीय च्युति और ध्रुवीय परिभ्रमण के लिये अप्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी हो सकते हैं। भ्रशन और वलन की गतिकी और पृथ्वी के पदार्थों के यांत्रिक व्यवहार पर मॉडलों की सहायता से अनेक महत्त्वपूर्ण प्रयोग किए गए हैं। विवर्तिनक विकृति की दर प्रतिबलों और उनकी अवधि पर निर्भर करती है। ए. ई. शाइडेगर (A.E. Scheidegger) ने प्रतिबलों को छोटी, बड़ी और मध्य अवधि के आधार पर वर्गीकृत किया है। छोटी अवधि लगभग चार घंटे की, मध्य अवधि चार घंटे से 15000 वर्षों तक की और लंबी अवधि 15000 वर्षों से करोड़ों वर्षों तक की होती है।

अनुप्रयुक्त भूभौतिकी

अनुप्रयुक्त भूभौतिकी, या भूभौतिक पूर्वेक्षण में पृथ्वी के पृष्ठ पर भौतिक मापों के द्वारा अधस्थल भूवैज्ञानिक जानकारियों का संग्रह किया जाता है। इसका उद्देश्य खनिज, पेट्रोलियम, जल, घात्विक निक्षेप, विखंडनीय पदार्थो का स्थान-निर्धारण और बाँध, रेलमार्ग, हवाई अड्डों, सैनिक और कृषि प्रायोजनाओं के निर्माणार्थ सतह के निकटस्थ स्तर के भूवैज्ञानिक लक्षणों से आँकड़ों का संग्रह है। भूवैज्ञानिक अन्वेषण की प्रविधियाँ मूलत: इस तथ्य पर निर्भर करती है कि खनिज निक्षेप और भूवैज्ञानिक स्तर के घनत्व, चुंबकत्व, प्रत्यास्थता, विद्युच्चालकता और रेडियोऐक्टिवता जैसे भौतिक गुण भिन्न होते हैं, वे पृथ्वी के गुरुत्व क्षेत्र या चुंबकत्व क्षेत्र में असंगति उत्पन्न करते हैं और उनका स्थान निर्धारण गुरुत्वमापी, या चुंबकीय विधियों, से किया जा सकता है। कुछ लक्षणों का अध्ययन अल्प प्रत्यक्ष विधि से, जैसे पेट्रोलियम पूर्वेक्षण में अपनति (anticlines) लवण गुंबद या भ्रंश ट्रैप (fault trap) जैसी सीमित संरचनाओं के गुण मापकर, करते हैं। गुरुत्व वैद्युत और चुंबकीय क्षेत्र जैसी प्राकृतिक घटनाओं, या आयोजित जैसे प्रेरित प्रभावों से उत्पन्न भूकंपतरंगों को मापने की विधियाँ उपलब्ध है। सामान्यता मापन कार्य पृथ्वी पर, विमानों में, अंतर्देशीय या तटीय जलपृष्ठ पर उपलब्ध, अथवा विशेष रूप से निर्मित ओर छिद्रों (bore holes) से किया जाता है।

विविध अभिलेखन प्रविधियाँ

इसके अंतर्गत चुंबकीय विधियाँ है, जिनमें कुओं से प्राप्त क्रोड़ों का प्रयोगशाला में परक्षण और कैलीपर अभिलेखन जिसके उपयोग से विद्ध छिद्र के परिवर्ती व्यास का मापन होता है और फलत: रचनाओं के शैल विज्ञान और नति मापनों के संबंध में कुछ सूत्र मिलते हैं, सम्मिलित हैं। अभिलेखन विधियाँ बड़ी ही सशक्त हैं।

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