अहमदिया आन्दोलन (1889 ई.) 'वायकोम सत्याग्रह' (1924-1925 ई.) वरसाड आन्दोलन (1923-1924 ई.), - Study Search Point

निरंतर कर्म और प्रयास ही सफलता की कुंजी हैं।

अहमदिया आन्दोलन (1889 ई.) 'वायकोम सत्याग्रह' (1924-1925 ई.) वरसाड आन्दोलन (1923-1924 ई.),

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वरसाड आन्दोलन (1923-1924 ई.) का संचालन सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में गुजरात में किया गया था। अंग्रेज़ ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाये गए 'डकैती कर' के विरोध में इस आन्दोलन का संचालन किया गया था।
डकैतियों का कहर दबाने के लिए पुलिस व्यवस्था करने के उद्देश्य से सरकार ने सितम्बर, 1923 ई. में वरसाड के प्रत्येक वयस्क व्यक्ति पर दो रुपये, सात आने का कर लगाने की घोषण कर दी। इस कर के विरोध में एक आन्दोलन का सूत्रपात किया गया। दिसम्बर, 1923 ई. तक इस आन्दोलन ने काफ़ी उग्र रूप धारण कर लिया। सभी 104 प्रभावित गाँवों ने नये कर की अदायगी न करने का निर्णय लिया। अतः 7 फ़रवरी, 1924 ई. को ब्रिटिश सरकार ने इस कर को समाप्त कर दिया। 'वरसाड आन्दोलन' को हार्डिमन ने ग्रामीण गुजरात में पहला सफल 'गाँधीवादी सत्याग्रह' कहा है।

अहमदिया आन्दोलन की स्थापना वर्ष 1889 ई. में की गई थी। इसकी स्थापना गुरदासपुर (पंजाब) के 'कादिया' नामक स्थान पर की गई।
इसका मुख्य उद्देश्य मुसलमानों में इस्लाम धर्म के सच्चे स्वरूप को बहाल करना एवं मुस्लिमों में आधुनिक औद्योगिक और तकनीकी प्रगति को धार्मिक मान्यता देना था। अहमदिया आन्दोलन की स्थापना 'मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद' (1838-1908 ई.) द्वारा 19वीं शताब्दी के अंत में की गई थी। इन्हीं के नाम 'अहमद' पर इसका का नाम 'अहमदिया आन्दोलन' पड़ा। मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ने स्वयं को श्रीकृष्ण का अवतार भी मानना शुरू कर दिया था। इन्हीं कारणों से इस आन्दोलन को शास्त्र के प्रतिकूल एवं दिगभ्रमित माना गया। मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ने अपनी पुस्तक ‘बराहीन-ए-अहमदिया’ में अपने सिद्धान्तों की व्याख्या की है।


वायकोम सत्याग्रह (1924-1925 ई.) एक प्रकार का गाँधीवादी आन्दोलन था। इस आन्दोलन का नेतृत्व टी. के. माधवन, के. केलप्पन तथा के. पी. केशवमेनन ने किया। यह आन्दोलन त्रावणकोर के एक मन्दिर के पास वाली सड़क के उपयोग से सम्बन्धित था।

उद्देश्य

'वायकोम सत्याग्रह' का उद्देश्य निम्न जातीय एझवाओं एवं अछूतों द्वारा गाँधी जी के अहिंसावादी तरीके से त्रावणकोर के एक मंदिर के निकट की सड़कों के उपयोग के बारे में अपने-अपने अधिकारों को मनवाना था। केरल में छूआछूत की जड़ें काफ़ी गहरी जमीं हुई थीं। यहाँ सवर्णों से अवर्णों को, जिनमें ‘एझवा’ और ‘पुलैया’ अछूत जातियाँ शामिल थीं, 16 से 32 फीट की दूरी बनाये रखनी होती थी।19वीं सदी के अंत तक केरल में नारायण गुरु, एन. कुमारन, टी. के. माधवन जैसे बुद्धिजीवियों ने छुआछूत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। सर्वप्रथम हिन्दू मंदिरों में प्रवेश तथा सार्वजनिक सड़कों पर हरिजनों के चलने को लेकर त्रावनकोर के ग्राम ‘वायकोम’ में आंदोलन शुरू हुआ।
आन्दोलन का नेतृत्व एझवाओं के कांग्रेसी नेता टी. के. माधवन, के. केलप्पन तथा के. पी. केशवमेनन ने किया। ग्राम में स्थित एक मंदिर में 30 मार्च1924 को केरल कांग्रेसियों के एक दल ने, जिसमें सवर्ण और अवर्ण दोनों सम्मिलित थे, मंदिर में प्रवेश किया। मंदिर में प्रवेश की ख़बर फैलते ही सवर्णों के संगठन ‘नायर सर्विस सोसाइटी’, ‘नायर समाजम’ व ‘केरल हिन्दू सभा’ ने आंदोलन का समर्थन किया। नम्बूदरियों (उच्च ब्राह्मण) के संगठन ‘योगक्षेम’ ने भी इस आंदोलन को समर्थन प्रदान किया। 30 मार्च1924 को के.पी. केशवमेनन के नेतृत्व में सत्याग्रहियों ने मंदिर के पुजारियों तथा त्रावनकोर की सरकार द्वारा मंदिर में प्रवेश को रोकने के लिए लगाई गई बाड़ को पार कर मंदिर की ओर कूच किया। सभी सत्याग्रहियों को गिरफ़्तार किया गया। इस सत्याग्रह के समर्थन में पूरे देश से स्वयं सेवक वायकोम पहुँचने लगे। पंजाब से एक अकाली जत्था तथा ई. वी. रामस्वामी नायकर, जिन्हें ‘पेरियार’ के नाम से जाना जाता था, ने मदुरै से आये एक दल का नेतृत्व किया।

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