अर्थशास्त्र सामाजिक विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन, वितरण, विनिमय और उपभोग का अध्ययन किया जाता है। 'अर्थशास्त्र' शब्द संस्कृत शब्दों अर्थ (धन) और शास्त्र की संधि से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है - 'धन का अध्ययन'। किसी विषय के संबंध में मुनष्यों के कार्यो के क्रमबद्ध ज्ञान को उस विषय का शास्त्र कहते हैं, इसलिए अर्थशास्त्र में मुनष्यों के अर्थसंबंधी कायों का क्रमबद्ध ज्ञान होना आवश्यक है। अर्थशास्त्र का प्रयोग यह समझने के लिये भी किया जाता है कि अर्थव्यवस्था किस तरह से कार्य करती है और समाज में विभिन्न वर्गों का आर्थिक सम्बन्ध कैसा है। अर्थशास्त्रीय विवेचना का प्रयोग समाज से सम्बन्धित विभिन्न क्षेत्रों में किया जाता है, जैसे:- अपराध, शिक्षा, परिवार, स्वास्थ्य, कानून, राजनीति, धर्म, सामाजिक संस्थान और युद्ध इत्यदि।
- परिचय, इतिहास -
ब्रिटिश अर्थशास्त्री अलफ्रेड मार्शल ने इस विषय को परिभाषित करते हुए इसे ‘मनुष्य जाति के रोजमर्रा के जीवन का अध्ययन’ बताया है। मार्शल ने पाया था कि समाज में जो कुछ भी घट रहा है, उसके पीछे आर्थिक शक्तियां हुआ करती हैं। इसीलिए सामज को समझने और इसे बेहतर बनाने के लिए हमें इसके अर्थिक आधार को समझने की ज़रूरत है।
लियोनेल रोबिंसन के अनुसार आधुनिक अर्थशास्त्र की परिभाषा इस प्रकार है-
- 'वह विज्ञान जो मानव स्वभाव का वैकल्पिक उपयोगों वाले सीमित साधनों और उनके प्रयोग के मध्य अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन करता है।
दुर्लभता (scarcity) का अर्थ है कि उपलब्ध संसाधन सभी मांगों और जरुरतों को पूरा करने में असमर्थ हैं। दुर्लभता और संसाधनों के वैकल्पिक उपयोगों के कारण ही अर्थशास्त्र की प्रासंगिकता है। अतएव यह विषय प्रेरकों और संसाधनों के प्रभाव में विकल्प का अध्ययन करता है। अर्थशास्त्र में अर्थसंबंधी बातों की प्रधानता होना स्वाभाविक है। परंतु हमको यह न भूल जाना चाहिए कि ज्ञान का उद्देश्य अर्थ प्राप्त करना ही नहीं है, सत्य की खोज द्वारा विश्व के लिए कल्याण, सुख और शांति प्राप्त करना भी है। अर्थशास्त्र यह भी बतलाता है कि मनुष्यों के आर्थिक प्रयत्नों द्वारा विश्व में सुख और शांति कैसे प्राप्त हो सकती है। सब शास्त्रों के समान अर्थशास्त्र का उद्देश्य भी विश्वकल्याण है। अर्थशास्त्र का दृष्टिकोण अंतर्राष्ट्रीय है, यद्यपि उसमें व्यक्तिगत और राष्ट्रीय हितों का भी विवेचन रहता है।
भारत में अर्थशास्त्र
अर्थशास्त्र पर लिखी गयी प्रथम पुस्तक कौटिल्य रचित अर्थशास्त्र है। यद्यपि उत्पादन और वितरण के बारे में परिचर्चा का एक लम्बा इतिहास है, किन्तु आधुनिक अर्थशास्त्र का जन्म एडम स्मिथ की किताब द वेल्थ आफ़ नेशन्स के 1776 में प्रकाशन के समय से माना जाता है। अर्थशास्त्र बहुत प्राचीन विद्या है। चार उपवेद अति प्राचीन काल में बनाए गए थे। इन चारों उपवेदों में अर्थवेद भी एक उपवेद माना जाता है। परंतु अब यह उपलब्ध नहीं है। विष्णुपुराण में भारत की प्राचीन तथा प्रधान 18 विद्याओं में अर्थशास्त्र भी परिगणित है। इस समय बार्हस्पत्य तथा कौटिलीय अर्थशास्त्र उपलब्ध हैं। अर्थशास्त्र के सर्वप्रथम आचार्य बृहस्पति थे। उनका अर्थशास्त्र सूत्रों के रूप में प्राप्त है, परंतु उसमें अर्थशास्त्र संबंधी सब बातों का समावेश नहीं है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र ही एक ऐसा ग्रंथ है जो अर्थशास्त्र के विषय पर उपलब्ध क्रमबद्ध ग्रंथ है, इसलिए इसका महत्व सबसे अधिक है। आचार्य कौटिल्य चाणक्य के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। ये चंद्रगुप्त मौर्य (321-297 ई.पू.) के महामंत्री थे। इनका ग्रंथ 'अर्थशास्त्र' पंडितों की राय में प्राय: 2,300 वर्ष पुराना है। आचार्य कौटिल्य के मतानुसार अर्थशास्त्र का क्षेत्र पृथ्वी को प्राप्त करने और उसकी रक्षा करने के उपायों का विचार करना है। उन्होंने अपने अर्थशास्त्र में बह्मचर्य की दीक्षा से लेकर देशों की विजय करने की अनेक बातों का समावेश किया है।
पाश्चात्य अर्थशास्त्र
अर्थशास्त्र का वर्तमान रूप में विकास पाश्चात्य देशों में, विशेषकर इंग्लैंड में, हुआ। ऐडम स्मिथ वर्तमान अर्थशास्त्र के जन्मदाता माने जाते हैं। आपने 'राष्ट्रों की संपत्ति' (वेल्थ ऑव नेशन्स) नामक ग्रंथ लिखा। यह सन् 1776 ई. में प्रकाशित हुआ। इसमें उन्होंने यह बतलाया है कि प्रत्येक देश के अर्थशास्त्र का उद्देश्य उस देश की संपत्ति और शक्ति बढ़ाना है। उनके बाद मालथस, रिकार्डों मिल, जेवंस, काल मार्क्स, सिज़विक, मार्शल, वाकर, टासिग ओर राबिंस ने अर्थशास्त्र संबंधी विषयों पर सुंदर रचनाएँ कीं। परंतु अर्थशास्त्र को एक निश्चित रूप देने का श्रेय प्रोफ़ेसर मार्शल को प्राप्त है, यद्यपि प्रोफ़ेसर राबिंस का प्रोफ़ेसर मार्शल से अर्थशास्त्र के क्षेत्र के संबंध में मतभेद है। पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों में अर्थशास्त्र के क्षेत्र के संबंध में तीन दल निश्चित रूप से दिखाई पड़ते हैं। पहला दल प्रोफेसर राबिंस का है जो अर्थशास्त्र को केवल विज्ञान मानकर यह स्वीकार नहीं करता कि अर्थशास्त्र में ऐसी बातों पर विचार किया जाए जिनके द्वारा आर्थिक सुधारों के लिए मार्गदर्शन हो। दूसरा दल प्रोफ़ेसर मार्शल, प्रोफ़ेसर पीगू इत्यादि का है, जो अर्थशास्त्र को विज्ञान मानते हुए भी यह स्वीकार करता है कि अर्थशास्त्र के अध्ययन का मुख्य विषय मनुष्य है और उसकी आर्थिक उन्नति के लिए जिन जिन बातों की आवश्यकता है, उन सबका विचार अर्थशास्त्र में किया जाना आवश्यक है। परंतु इस दल के अर्थशास्त्री राजीनीति से अर्थशास्त्र को अलग रखना चाहते हैं।
आधुनिक विश्व का आर्थिक इतिहास
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमरीका और सोवियत रूस मे शीत युद्ध छिड गया। ये कोइ युद्ध नही था पर इससे सारा विश्व दो केन्द्रोँ मे बट गया। शीत युद्ध के दौरान अमरीका, एंग्लैंड, जर्मनी (पश्चिम), औस्ट्एलिया, फ्रांस, कनाडा, स्पेन एक तरफ थे। ये सभी देश लोक्तंत्रिक थे और यहा पे खुली अर्थव्यवस्था की नीति को अपनाया गया। लोगो को व्यापार करने की खुली छूट थी। शेयर बाज़ार मे पैसा लगाने की छूट थी। इन देशो मे काफी सरी बडी-बडी कम्पनिया बनी। इन कम्पनियो मे नयी नयी रिसर्च होती थी। विश्वविद्यालय, सूचना प्रौद्योगिकी, इंजिनेअरिंग उद्योग, बैंकआदि स अभी खेत्रोँ मे जम के तरक्की हुई। ये सभी देश एक दूस्रे देशोँ से व्यापार को बढावा देते थे। 1945 के बाद से इन सभी देशोँ ने खूब तरक्की की । दूसरी तरफ रूस, चीन, म्यन्मार, पूर्वी जर्मनी समेत कयी और देश थे। ये वे देश थे जहा पे समाजवाद की अर्थ नीति अप्नायी गयी। यहान पे ज़्यादातर उद्योगो पे कडा सरकारी नियंत्रण होता था। उद्योगो से होने वाले मुनाफे पे सर्कारी हक होता था। आम तौ पे ये देश दूस्रे लोक्तंत्रिक देशो के साथ ज़्यादा व्यापर नही कर्ते थे। इस तरह की अर्थ नीति के कारण यहा के उद्योगो मे ज़्यादा प्रतिस्पर्धा नही होती थी। आम लोगो को भी मुनाफा कमाने क कोइ इंसेंटिव नही होता था। इन करणो से इन देशो मे बहुत ज़्यादा त्तरकी नही हुई। सन 3-अक्टूबर-1990 मे पूर्व जर्मनी और पश्चिम जर्मनी का विलय हुआ। सन्युक्त जर्मनी ने तरकीशुदा पश्चिमी जर्मनी की तरह खुली अर्थव्यवस्था और लोक्तंत्र को अप्नाया। फिर 1991 मे सोवियत रूस का विखंडन हुआ। रूस समेत 15 देशो का जन्म हुआ। रूस ने भी समाजवाद को छोड के खुली अर्थ्व्यवस्था को अपनाया। चीन ने समाजवाद को पूरी तरह तो नही छोडा पर 1970 के अंत से उदार नीतियो को अपनाया और अगले 3 सालोन मे बेशुमार तरकी की।
प्रो॰ राबिंस के अनुसार अर्थशास्त्र वह विज्ञान है जो मनुष्य के उन कार्यों का अध्ययन करता है जो इच्छित वस्तु और उसके परिमित साधनों के रूप में उपस्थित होते हैं, जिनका उपयोग वैकल्पिक या कम से कम दो प्रकार से किया जाता है। अर्थशास्त्र की इस परिभाषा से निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं-
(1) अर्थशास्त्र विज्ञान है;
(2) अर्थशास्त्र में मनुष्य के कार्यों के संबंध में विचार होता है;
(3) अर्थशास्त्र में उन्हीं कार्यों के संबंध में विचार होता है जिनमें-
- (अ) इच्छित वस्तु प्राप्त करने के साधन परिमित रहते हैं और
- (ब) इन साधनों का उपयोग वैकल्पिक रूप से कम से कम दो प्रकार से किया जाता है।
मनुष्य अपनी इच्छाओं की तृप्ति से सुख का अनुभव करता है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य अपनी इच्छाओं को तृप्त करना चाहता है। इच्छाओं की तृप्ति के लिए उसके पास जो साधन, द्रव्य इत्यादि हैं वे परिमित हैं। व्यक्ति कितना भी धनवान क्यों न हो, उसके धन की मात्रा अवश्य परिमित रहती है; फिर वह इस परिमित साधन द्रव्य का उपयोग कई तरह से कर सकता है। इसलिए उपयुक्त परिभाषा के अनुसार अर्थशास्त्र में मनुष्यों के उन सब कार्यो के संबंध में विचार किया जाता है जो वह परिमित साधनों द्वारा अपनी इच्छाओं को तृप्त करने के लिए करता है। इस प्रकार उसके उपभोग संबंधी सब कार्यो का विवेचन अर्थशास्त्र में किया जाना आवश्यक हो जाता है। इसी प्रकार मनुष्य को बाज़ार में अनेक वस्तुएँ किस प्रकार खरीदने का साधन द्रव्य परिमित रहता है। इस परिमित साधन द्वारा वह अपनी आवश्यक वस्तुएँ किस प्रकार खरीदता है, वह कौन सी वस्तु किस दर से, किस परिमाण में, खरीदता या बेचता है, अर्थात् वह विनियम किस प्रकार करता है, इन सब बातों का विचार अर्थशास्त्र में किया जाता है। मनुष्य को अपने समय का उपयोग करने की अनेक इच्छाएँ होती हैं। परंतु समय हमेशा परिमित रहता है और उसका उपयोग कई तरह से किया जा सकता है। मान लीजिए, कोई मनुष्य सो रहा है, पूजा कर रहा है या कोई खेल खेल रहा है। प्रोफ़ेसर राबिंस की परिभाषा के अनुसार इन कार्यों का विवेचन अर्थशास्त्र में होना चाहिए, क्योंकि जो समय सोने में पूजा में या खेल में लगाया गया है, वह अन्य किसी कार्य में लगाया जा सकता था। इस परिभाषा को मान लेने से अर्थशास्त्र, राजनीति, धर्मशास्त्र और समाजशास्त्र की सीमाओं का स्पष्टीकरण बराबर नहीं हो पाता है।
प्रोफ़ेसर राबिंस के अनुयायियों का मत है कि परिमित साधनों के अनुसार मनुष्य के प्रत्येक कार्य का आर्थिक पहलू रहता है और इसी पहलू पर अर्थशास्त्र में विचार किया जाता है। वे कहते हैं, यदि किसी कार्य का संबंध राज्य से हो तो उसका उस पहलू से विचार राजनीतिशास्त्र में किया जाए और यदि उस कार्य का संबंध धर्म से भी हो तो उस पहलू से उनका विचार धर्मशास्त्र में किया जाए। राबिंस की अर्थशास्त्र की परिभाषा की दूसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि वह अर्थशास्त्र को केवल विज्ञान की मानता है। उसमें केवल ऐसे नियमों का विवेचन रहता है जो किसी समय में कार्य कारण का संबंध बतलाते हैं। परिस्थितियों में किस प्रकार के परिवर्तन होने चाहिए और परिस्थितियों के बदलने के क्या तरीके हैं, इन गंभीर प्रश्नों पर उसमें विचार नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये सब कार्य विज्ञान के बाहर हैं। माने लें, किसी समय किसी देश में शराब पीनेवाले व्यक्तियों की सँख्या बढ़ रही है। प्रोफेसर राबिंस की परिभाषा के अनुसार अर्थशास्त्र में केवल यही विचार किया जाएगा कि शराब पीनेवालों की संख्या बढ़ने से शराब की कीमत, शराब पैदा करनेवालों और स्वयं शराबियों पर क्या असर पड़ेगा। परंतु उनके अर्थशास्त्र में इस प्रश्न पर विचार करने के लिए गुंजाइश नहीं है कि शराब पीना अच्छा है या बुरा और शराब पीने की आदत सरकार द्वारा कैसे बंद की जा सकती है। उनके अर्थशास्त्र में मार्गदर्शन का अभाव है। प्रत्येक शास्त्र में मार्गदर्शन उसका एक महत्वपूर्ण भाग माना जाता है और इसी भाग का प्रोफेसर राबिंस के अर्थशास्त्र की परिभाषा में अभाव है। इस कमी के कारण अर्थशास्त्र का अध्ययन जनता के लिए लाभकारी नहीं हो सकता।
समाजवादी चाहते हैं कि पूँजीपतियों और जमींदारों का अस्तित्व न रहने पाए, सरकार मजदूरों की हो और देश की आर्थिक दशा पर सरकार का पूर्ण नियंत्रण हो। वे अपनी अर्थशास्त्र संबंधी पुस्तकों में इन प्रश्नों पर भी विचार करते हैं कि मजदूर सरकार किस प्रकार स्थापित होनी चाहिए। जमींदारों और पूँजीपतियों का अस्तित्व कैसे मिटाया जाए। मजदूर सरकार का सगठन किस प्रकार का हो और उनका संगठन संसारव्यापी किस प्रकार किया जा सकता है। इस प्रकार समाजवादी लेखक अर्थशास्त्र का क्षेत्र इतना व्यापक बना देते हैं कि उसमें राजनीतिशास्त्र की बहुत सी बातें आ जाती हैं। हमको अर्थशास्त्र का क्षेत्र इस प्रकार निर्धारित करना चाहिए जिससे उसमें राजनीतिशास्त्र या अन्य किसी शास्त्र की बातों का समावेश न होने पाए।अर्थशास्त्र के क्षेत्र के संबंध में प्रोफेसर मार्शल की अर्थशास्त्र की परिभाषा पर भी विचार कर लेना आवश्यक है। प्रोफेसर मार्शल के मतानुसार अर्थशास्त्र मनुष्य के जीवन संबंधी साधारण कार्यों का अध्ययन करता है। वह मनुष्यों के ऐसे व्यक्तिगत और सामजिक कार्यों की जाँच करता है जिनका घनिष्ठ संबंध उनके कल्याण के निमित भौतिक साधन प्राप्त करने और उनका उपयोग करने से रहता है। अर्थशास्त्र में अब देशवासियों की दशा सुधारने के तरीकों पर भी विचार किया जाता है, परंतु इस दशा सुधारने का अंतिम लक्ष्य अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है। सर्वमान्य ध्येय के अभाव में अर्थशास्त्रियों में मतभिन्नता इतनी बढ़ गई है कि किसी विषय पर दो अर्थशास्त्रियों का एक मत कठिनता से हो पाता है। इस मतभिन्नता के कारण अर्थशास्त्र के अध्ययन में एक बड़ी बाधा उपस्थित हो गई है। इस बाधा को दूर करने के लिए पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों को अपने ग्रंथों में अर्थशास्त्र के ध्येय के संबंध में गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए और जहाँ तक संभव हो, अर्थशास्त्र का एक सर्वमान्य ध्येय शीघ्र निश्चित कर लेना चाहिए।
अर्थशास्त्र के अंग
पूर्व में उत्पादन, उपभोग, विनिमय तथा वितरण - अर्थशास्त्र के ये चार प्रधान अंग माने जाते थे। परंतु आधुनिक अर्थशास्त्र में कई नई व्याख्याएँ जुड़ गई हैं जैसे अब हम सूक्ष्म (माइक्रो) तथा व्यष्टि (मैक्रो) दो रूपों में आर्थिक समस्याओं को देखते हैं। इसके अतिरिक्त राजस्व भी अलग से अपना महत्व बढ़ा रहा है, क्योंकि इधर अर्थिक क्रिया कलापों में सरकार का हस्तक्षेप जनकल्याण की दृष्टि से आवश्यक हो गया है। अंतराष्ट्रीय व्यापार, विदेशी विनियम, बैकिंग आदि व्यष्टि अर्थशास्त्र के रूप हैं। संक्षेप में, अध्ययन के दृष्टिकोण से अर्थशास्त्र के विभिन्न अंगों को हम इस प्रकार रख सकते हैं:
सूक्ष्म अर्थशास्त्र
यह वैयक्तिक इकाइयों का अध्ययन करता है, जैसे व्यक्ति, परिवार फर्म, उद्योग, विशेष वस्तु का मूल्य। बोल्डिग केअनुसार, सूक्ष्म अर्थशास्त्र विशेष फर्मो विशेष परिवारों वैयक्तिक कीमतों, मजदूरियों, आयों, वैयक्तिक उद्योगों तथा विशिष्ट वस्तुओं का अध्ययन है। यह सीमांत विश्लेषण को महत्व देता है।
व्यष्टि अर्थशास्त्र
आधुनिक आर्थिक सिंद्धांत के बहुत से महत्व पूर्ण विषय जैसे अंतरराष्ट्रीय व्यापार विदेशी विनिमय राजस्व बैकिंग व्यापारचक्र, राष्ट्रीय आय तथा रोजगार के सिद्धांत, आर्थिक नियोजन एवं आर्थिक विकास आदि का अध्ययन इसके अंतर्गत होता है। बोल्डिग के शब्दों में, व्यापक अर्थशास्त्र अर्थशास्त्र का वह भाग है जो अर्थशास्त्र के बड़े समूहों और औसतों का अध्ययन करता है, न कि उसकी विशेष मदों का। वह इन समूहों को उपयोगी ढँग से परिभाषित करने का प्रयत्न करता है तथा इनके पारस्परिक संबंधों को जाँचता है। संक्षेप में ये ही अर्थशास्त्र के अंग है। केंस के बाद के आधुनिक अर्थशास्त्री अब कुछ नए नामों से अर्थशास्त्र के विभिन्न अंगों का विवेचन करते हैं, जैसे पूंजी का अर्थशास्त्र पूँजी निर्माण, श्रम अर्थशास्त्र, यातायात का अर्थशास्त्र, मौद्रिक, अर्थशास्त्र केंसीय अर्थशास्त्र अल्प विकसित देशों का अर्थ शास्त्र, विकास का अर्थशास्त्र, तुलनात्म्क अर्थशास्त्र, अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्र आदि। आधुनकि काल में देश विदेश में अर्थशास्त्र विषय की स्नातकोत्तर शिक्षा भी इन्हीं नामों के प्रश्नपत्रों के अनुसार दी जाती है।
अर्थशास्त्र का ध्येय
संसार में प्रत्येक व्यक्ति अधिक से अधिक सुखी होना और दु:ख से बचना चाहता है। वह जानता है कि अपनी इच्छा जब तृप्त होती है तब सुख प्राप्त होता है और जब इच्छा की पूर्ति नहीं होती तब दु:ख का अनुभव होता है। धन द्वारा इच्छित वस्तु प्राप्त करने में सहायता मिलती है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति धन प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। वह समझता है कि संसार में धन द्वारा ही सुख की प्राप्ति होती है। अधिक से अधिक सुख प्राप्त करने के लिए वह अधिक से अधिक धन प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। इस धन को प्राप्त करने की चिंता में वह प्राय: यह विचार नहीं करता कि धन किस प्रकार से प्राप्त हो रहा है। इसका परिणाम यह होता है कि धन ऐसे साधनों द्वारा भी प्राप्त किया जाता है जिनसे दूसरों का शोषण होता है, दूसरों को दुख पहुँचता है। इस प्रकार धन प्राप्त करने के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। पूँजीपति अधिक धन प्राप्त करने की चिंता में अपने मजदूरों को उचित मजदूरी नहीं देता। इससे मजदूरों की दशा बिगड़ने लगती है। दूकानदार खाद्य पदार्थो में मिलावट करके अपने ग्राहकों के स्वास्थ्य को नष्ट करता है। चोरबाजारी द्वारा अनेक सरल व्यक्ति ठगे जाते हैं, महाजन कर्जदारों से अत्यधिक सूद लेकर और जमींदार किसानों से अत्यधिक लगान लेकर असंख्य व्यक्त्याेिं के परिवारों को बरबाद कर देते हैं। प्रकृति का यह अटल नियम है कि जो जैसा बोता है उसको वैसा ही काटना पड़ता है। दूसरों का शोषण कर या दु:ख पहुँचाकर धन प्राप्त करनेवाले इस नियम को शायद भूल जाते हैं। जो धन दूसरों को दुख पहुँचाकर प्राप्त होता है उससे अंत में दु:ख ही मिलता है। उससे सुख की आशा करना व्यर्थ है। यह सत्य है कि दूसरों को दुख पहुँचाकर जो धन प्राप्त किया जाता है उससे इच्छित वस्तुएँ प्राप्त की जा सकती है और इन वस्तुओं को प्राप्त करने से सुख मिल सकता है। परंतु यह सुख अस्थायी है और अंत में दुख का कारण हो जाता है। संसार में ऐसी कई वस्तुएँ हैं जिनका उपयोग करने से तत्काल तो सुख मिलता है, परंतु दीर्घकाल में उनसे दुख की प्राप्ति होती है। उदाहरणार्थ मादक वस्तुओं के सेवन से तत्काल तो सुख मिलता है, परतु जब उनकी आदत पड़ जाती है तब उनका सेवन अत्यधिक मात्रा में होने लगता है, जिसका स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे अंत में दु:खी होना पड़ता है। दूसरों को हानि पहुँचाकर जो धन प्राप्त होता है वह निश्चित रूप से बुरी आदतों को बढ़ाता है और कुछ समय तक अस्थायी सुख देकर वह दु:ख बढ़ाने का साधन बन जाता है। दूसरों को दुख देकर प्राप्त किया हुआ धन कभी भी स्थायी सुख और शांति का साधक नहीं हो सकता।
सुख दो प्रकार के हैं। कुछ सुख तो ऐसे हैं जो दूसरों को दुख पहुँचाकर प्राप्त होते हैं। इनके उदाहरण ऊपर दिए जा चुके हैं। कुछ सुख ऐसे हैं जो दूसरों को सुखी बनाकर प्रप्त होते हैं। वे मनुष्य के मन में शांति उत्पन्न करते हैं। अपना कर्तव्य पालन करने से जो सुख प्राप्त होता है वह भी शांति प्रद होता है कर्तव्यपालन करते समय जो श्रम करना पड़ता है उससे कुछ कष्ट अवश्य मालूम होता है, परंतु कार्य पूरा होने पर वह दु:ख सुख में परिणत हो जाता है और उससेन मन में शांति उत्पन्न होती है। इस प्रकार का सुख भविष्य में दु:ख का साधन नहीं होता ओर इस प्रकार के सुख को आनंद कहते हैं। जब आनंद ही आनंद प्राप्त होता है तब दु:ख का लेश मात्र भी नहीं रह जाता। ऐसी दशा को परमानंद कहते हैं। परमानंद प्राप्त करना प्रत्येक व्यक्ति का सर्वोत्तम ध्येय है। वही आत्मकल्याण की चरम सीमा है। प्रत्येक मनुष्य का कल्याण इसी में है कि वह परमानंद प्राप्त करने का हमेशा प्रयत्न करता रहे। वह हमेशा ऐसा सुख प्राप्त करता रहे जो भाविष्य में दु:ख का कारण या साधन न बन जाए और वह शांति और संतोष का अनुभव करने लगे। आत्मकल्याण के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति दूसरों के स्वार्थों को उतना ही महत्व दे जितना वह अपने स्वार्थ को देता है। जैसे वह अपने सुखों को बढ़ाने का प्रयत्न करता है, वैसे ही उसे दूसरों के सुखों को बढ़ाने का भी प्रयत्न करना चाहिए। इसका पारिणाम यह होगा कि ऐसे कार्य बंद हो जाएँगे जिनके कारण दूसरों के दु:खों की वृद्धि होती है। इससे विश्व के जीवों में सुख की निरंतर वृद्धि होने लगेगी और विश्व का कल्याण बढ़ते बढ़ते चरम सीमा तक पहुँच जाएगा। बिना विश्वकल्याण के किसी भी व्यक्ति का आत्मकल्याण नहीं हो सकता। सच्चा आत्मकल्याण विश्व कल्याण द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। आत्मकल्याण ही प्रत्येक व्यक्ति का सर्वोत्तम ध्येय है और जब अर्थशास्त्र मनुष्य के आर्थिक प्रयत्नों का अध्ययन करता है तब उसका ध्येय भी आत्मकल्याण ही होना चाहिए। परंतु, जैसा ऊपर बतलाया जा चुका है, सच्चा आत्मकल्याण विश्व कल्याण द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए अर्थशास्त्र का ध्येय विश्वकल्याण ही होना चाहिए।
गणितीय अर्थशास्त्र
आधुनिक अर्थशास्त्र आधे से अधिक गणितीय माडलों, साध्यों, समीकरणों तथा फारमूलों (सुत्रों) में बंध गया है। पूर्व में सांख्यिकी का प्रयोग अर्थशास्त्री ऐच्छिक रूप से करते थे परंतु अब वह अर्थशास्त्र के हेतु अनिवार्य हो गया है। इसके अतिरिक्त अर्थमिति भी विकास माडलों में पूर्ण विकसित हो रही है। प्रवैगिक रूप में 'इन-पुट आउट-पुट' विश्लेषण से लेकर अर्थशास्त्र ने 'गेम थ्योरी' तथा 'टेक्निकल फलो' तक निकाल डाला है। आर्थिक सिद्धांतों को स्पष्ट करने हेतु गणितीय 'टूलस' का प्रयोग सब अर्थशास्त्री कर रहे हैं। 'लाइनर प्रोग्रमिंग' तथा 'विभेदीकीकरण प्रक्रिया' के अंतर्गत अर्थशास्त्री गणितीय (विशेष बीजगणितीय सूत्रों से) दृश्य प्रभावों के साथ साथ अदृश्य आर्थिक प्रभावों को भी दिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं। गणना की छोटी मशीन से लेकर विशालतम वैज्ञानिक विद्युतीय 'कंप्यूटर' तक अर्थशास्त्रियों की गणितीय प्रगति के व्यावहारिक रूप हैं।
अल्पविकसित देशों का विकास
व्यावहारिक अर्थशास्त्र गरीब एवं साधनरहित देशों की व्यावहारिक समस्याओं को सुलझा रहा है। गुनार म्रिडल कृत एशियन ड्रामा संभवत: मार्क्स के दास कैपिटल के बाद सबसे बड़ा अर्थशास्त्रीय ग्रंथ प्रकाशित हुआ है जिसमें अल्पविकसित देशों की समस्याएँ सुलझाई गई हैं। अर्थशास्त्र की यह विचारधारा भी द्वितीय महायुद्ध के बाद उभरी है और इसका भी नित नवीन विस्तार हो रहा है। इसी के अंतर्गत योजनाकरण, पूंजी निर्माण तथा विदेशी सहायता जैसी वर्तमान अंतराष्ट्रीय समस्याओं का अध्ययन किया जाता है।
अर्थशास्त्र की उपादेयता
अर्थशास्त्र का महत्व बड़ी तीव्र गति से बढता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ एफाके की रिपोर्ट, (1970) ई. के अनुसार अर्थशास्त्र पर लगभग 1,000 ग्रंथ या लेख प्रति घंटे विश्व में प्रकाशित हो रहे हैं। राजनीति के बाद लोकप्रियता में अर्थशास्त्र का ही स्थान हैं। वस्तुत: अर्थशास्त्र का प्रयोग कल्याण के हेतु करना ही पड़ेगा अन्यथा केवल भौतिक साधन जुटाने का लक्ष्य रखकर एक दिन यह सबको ले डूबेगा। संतोष की बात है कि अब अर्थशास्त्री इस बात को समझने लगे हैं। भारत का प्राचीन दर्शन इस तथ्य को प्रारंभ से जानता है कि केवल भौतिक साधनों का बाहुल्य ही मनुष्य को सुखी नहीं कर सकता। प्रो॰ शुंपीटर ने अपने नवीनतम लेखअर्थशास्त्र का भविष्य में स्वीकार किया है कि सिद्धांत रूप से आर्थिक विश्लेषण चाहे जितनी प्रगति कर ले, व्यवहार में उसे हमेशा शांति, सुख एवं कल्याण के हेतु ही कार्य करना होगा। यदि अर्थशास्त्र समस्त मानव के समान कल्याण के हेतु कार्य कर सके तो इसका भविष्य बहुत उज्वल होगा। इसी कारण अब अर्थशास्त्र पर नोबेल पुरस्कार भी दिया जाने लगा है।
भारतीय अर्थशास्त्री
भारत की अर्थशास्त्र को जानने, समझने और प्रयोग में लाने की अपनी विशेष पंरपरा रही है। यह दु:ख का विषय है कि प्राचीन एव नवीन भारतीय अर्थशास्त्रियों की प्रमुख कृतियों का मूल्यांकन उचित रूप से अभी तक नहीं किया गया है और हमारे विद्यार्थी केवल पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों एवं उनके सिद्धांतो को पढ़ते रहे हैं।
प्राचीन काल के आर्थिक विचारों को हम वेदों, उपनिषदों, महाकाव्यों, धर्मशास्त्रों, गृह्मसूत्रों, नारद, शुक्र विदुर के नीतिग्रंथों और सर्वाधिक रूप से कैटिल्य के अर्थशास्त्र से प्राप्त करते हैं।
वर्तमान समय में मुख्य भारतीय अर्थशास्त्रियों में
- दादाभाई नौरोजी (1825),
- महादेव गोविंद रानाडे (1842),
- रमेशचंद्र दत्त (1848),
- गोपाल कृष्ण गोखले (1866),
- महात्मा गांधी (1869) तथा
- विश्वेश्वरैया (1861) के नाम उल्लेखनीय है।
साभार - WIKI
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