समाज सुधारक, लेखक : आनन्द कौसल्यायन, - Study Search Point

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समाज सुधारक, लेखक : आनन्द कौसल्यायन,

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भदन्त आनन्द कौसल्यायन (Bhadant Anand Kausalyan ; जन्म- 5 जनवरी1905अम्बालापंजाब; मृत्यु- 22 जून1988) प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान, समाज सुधारक, लेखक तथा पालि भाषा के मूर्धन्य विद्वान थे। ये पूरे जीवन घूम-घूमकर राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार-प्रसार करते रहे। भदन्त आनन्द कौसल्यायन बीसवीं शती में बौद्ध धर्म के सर्वश्रेष्ठ क्रियाशील व्यक्तियों में गिने जाते थे। ये दस वर्षों तक 'राष्ट्रभाषा प्रचार समिति', वर्धा के प्रधानमंत्री रहे थे। ये देशवासियों की समता के समर्थक थे। हरिनाम दास बचपन से ही स्वतंत्र विचारों के व्यक्ति थे। देश की ग़ुलामी उन्हें असह्य थी और समाज में फैला भेदभाव का बर्ताव उनको विचलित कर देता था।
वे देशवासियों की समता के समर्थक थे। इन्हीं विचारों का परिणाम था कि उनके अंदर वैराग्य की भावना पनपने लगी थी और 21 वर्ष की उम्र में घर छोड़कर वे देशाटन के लिए निकल पड़े। देश भ्रमण में वे अनेक स्थानों में गए और वहां के लोगों की जीवन चर्चा और संस्कृति का निकट से अध्ययन किया। इसी क्रम में उनका संपर्क कांगड़ा ज़िले की 'डुमने' और 'सराडे' नामक जातियों से हुआ। हरिनाम दास ने उनमें फैली बुराइयों को दूर करने की चेष्टा की और कुछ समय तक उनके बच्चों की शिक्षा का भी प्रबंध किया। इस बीच हरिनाम दास की भेंट एक साधु से हुई। इस साधु का नाम था- 'रामोदर दास'। यही 'रामोदर दास' बाद में राहुल सांकृत्यायन के नाम से विख्यात हुए। राहुल जी से मिलना हरिनाम दास के जीवन की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। राहुल जी की प्रेरणा से वे बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुए। उन्हें परिव्राजक के वस्त्र पहनने को मिले और बौद्ध तीर्थों की यात्रा करने की प्रेरणा भी मिली।
भदन्त आनन्द जी 1932 में धर्मदूत बन कर लंदन गए। बाद में उन्होंने चीन, जापान, थाईलैंड आदि देशों की यात्रा की। सब जगह उनका विद्वानों से संपर्क हुआ और उन्होंने बौद्ध धर्म की विभिन्न प्रवृत्तियों के संबंध में विचारों का आदान-प्रादान किया। उन्होंने कुछ समय तक सारनाथ में रहकर 'महाबोधि सभा' का काम भी देखा और 'धर्मदूत' नामक पत्र का संपादन भी किया। वर्ष 1956 में नेपाल में आयोजित 'चतुर्थ बौद्ध सम्मेलन' में भी वे सम्मिलित हुए। वहीं उनकी भेंट डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर से हुई थी।
भदन्त आनन्द जी ने हिन्दी साहित्य के संवर्धन के लिए बहुत काम किया। बौद्ध जातक कथाओं को हिन्दी में उपलब्ध कराने का श्रेय उनको ही है। उनकी कुछ अन्य कृतियां भी प्रसिद्ध हैं, जैसे-
  • 'जो भूल न सका'
  • 'जो लिखना पड़ा'
  • 'रेल का टिकट'।
  • 'दर्शन-वेद से मार्क्स तक'
  • 'देश की मिट्टी बुलाती है'
  • 'मनुस्मृति क्यों जलायी गई?'
  • 'राम कहानी राम की जबानी'
  • 'भगवान बुद्ध और उनके अनुचर'
  • 'बौद्ध धर्म का सार'
  • 'बौद्ध धर्म एक बुद्धिवादी अध्ययन'
भदन्त जी ने जातक की अत्थाकथाओ का 6 खंडो में पालि भाषा से हिंदी में अनुवाद किया। धम्मपद का हिंदी अनुवाद के आलावा अनेक पालि भाषा की किताबों का हिंदी भाषा में अनुवाद किया। साथ ही अनेक मौलिक ग्रन्थ भी रचे जैसे - 'अगर बाबा न होते', जातक कहानियाँ, भिक्षु के पत्र, दर्शन : वेद से मार्क्स तक, 'राम की कहानी, राम की जुबानी', 'मनुस्मृति क्यों जलाई', बौद्ध धर्म एक बुद्धिवादी अध्ययन, बौद्ध जीवन पद्धति, जो भुला न सका, 31 दिन में पालि, पालि शव्दकोष, सारिपुत्र मौद्गाल्ययान् की साँची, अनागरिक धरमपाल आदि। 22 जून 1988 को भदन्त जी का नागपुर में महापरिनिर्वाण हो गया।
'दर्शन-वेद से मार्क्स तक' में उन्होंने भारत के सभी दर्शनों का वर्णन किया है। उनकी हिन्दी सेवाओं के लिए 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' ने उन्हें 'वाचस्पति' की उपाधि से सम्मानित किया था

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