राजनीतिक अर्थशास्त्र (Political economy) किसी समाज में राजनीतिक और आर्थिक सत्ता के बँटवारे की जानकारी देते हुए बताता है कि सत्ता का यह वितरण वैकासिक और अन्य नीतियों पर किस तरह का प्रभाव डाल रहा है। इसी बात को इस तरह भी कहा जा सकता है कि राजनीतिक अर्थशास्त्र उन बुद्धिसंगत फ़ैसलों का अध्ययन करता है जो राजनीतिक और आर्थिक संस्थाओं के संदर्भ में लिए जाते हैं। इस अध्ययन में तर्कसंगत आधारों की रोशनी में समष्टिगत प्रभावों पर ग़ौर किया जाता है। मूलतः उत्पादन एवं व्यापार, तथा इनका विधि, प्रथा, सरकार से सम्बन्ध और राष्ट्रीय आय एवं सम्पदा के वितरण के अध्ययन को 'राजनीतिक अर्थशास्त्र' कहा गया था।
ऐडम स्मिथ की रचना
ऐडम स्मिथ की रचना
अट्ठारहवीं सदी के मध्य में प्रकाशित ऐडम स्मिथ की रचना वेल्थ ऑफ़ नेशंस से लेकर उन्नीसवीं सदी में प्रकाशित जॉन स्टुअर्ट मिल की रचना प्रिंसिपल्स ऑफ़ पॉलिटिकल इकॉनॉमी और कार्ल मार्क्स की रचना 'कैपिटल : अ क्रिटीक ऑफ़ पॉलिटिकल इकॉनॉमी' तक के लम्बे दौर में अर्थशास्त्र का अनुशासन मुख्य तौर से 'राजनीतिक अर्थशास्त्र' के नाम से ही जाना जाता था। दरअसल, समाज-वैज्ञानिकों की मान्यता थी कि राजनीतिक कारक आर्थिक परिणामों पर अनिवार्य ही नहीं बल्कि निर्णयकारी प्रभाव डालते हैं। बीसवीं सदी में राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र के अनुशासन अलग होते चले गये। नियोक्लासिकल अर्थशास्त्र के प्रभाव में अर्थशास्त्र की पद्धतियाँ राजनीति से अपेक्षाकृत स्वायत्त हो कर विकसित हुईं और अर्थशास्त्रियों का ज़ोर उपभोक्ताओं और कम्पनियों के ऊपर पड़ने वाले सरकारी नियंत्रणों और बाज़ार के विकास की परिस्थितियों पर होता चला गया। अभी पिछले कुछ दशकों से एक बार फिर राजनीति और अर्थशास्त्र के गठजोड़ की बातें होने लगी हैं और नये राजनीतिक अर्थशास्त्र की चर्चा सुनायी देने लगी है। राजनीतिक अर्थशास्त्र का इस नये उभार में ख़ास बात यह है कि यह राजनीति के आर्थिक महत्त्व को रेखांकित करने के लिए आधुनिक अर्थशास्त्र की परिष्कृत विश्लेषणात्मक पद्धतियों का इस्तेमाल करता है।
आर्थिक विज्ञान के इतिहासकारों के मुताबिक पॉलिटिकल इकॉनॉमी (राजनीतिक अर्थशास्त्र) का पद पहली बार 1615 में मोंक्रेतीन द वातविले द्वारा प्रयोग किया गया था। फ़्रांस का यह वणिकवादी विद्वान चाहता था कि आर्थिक विज्ञान की परिभाषा को उन सीमाओं से बाहर निकाला जाए जिनमें यूनानी चिंतकों ने उसे सीमित कर दिया है। प्राचीन यूनानियों के अनुसार अर्थशास्त्र का क्षेत्र घर-ख़र्च तक सीमित था। मोंक्रेतीन ने इस विचार में राज्य की संस्था के इर्द-गिर्द होने वाले चिंतन यानी राजनीति को भी जोड़ दिया। 1761 में सर जेम्स स्टुअर्ट पहले अंग्रेज़ अर्थशास्त्री थे जिन्होंने इस पद का उल्लेख अपनी पुस्तक 'ऐन इनक्वैरी इनटु द प्रिंसिपल्स ऑफ़ पॉलिटिकल इकॉनॉमी' के शीर्षक में किया। ऐडम स्मिथ का विचार था कि राजनीतिक अर्थशास्त्र का काम जनता को जीवनयापन के लिए पर्याप्त आमदनी उपलब्ध कराने की प्रावधान करना है और दूसरी ओर सरकार के लिए इतने राजस्व का इंतज़ाम करना है जिससे सार्वजनिक उद्देश्यों की पूर्ति हो सके। राजनीतिक अर्थशास्त्र को स्मिथ द्वारा दी गयी परिभाषा के दायरे से निकाल कर कहीं व्यापक अर्थ देने का काम कार्ल मार्क्स ने किया। उनके समकालीन जे.एस. मिल की दिलचस्पी पूँजीवाद की आलोचना में नहीं थी (हालाँकि आधी सदी तक उनकी रचना आर्थिक विज्ञान के अध्यापन में इस्तेमाल की जाती रही), लेकिन उन्होंने मूल्य, व्यापार, धन, आबादी, वेतन, आर्थिक प्रणाली और आर्थिक नीति के संदर्भ में राजनीतिक अर्थशास्त्र की व्याख्या की। पर मार्क्स ने ब्रिटिश राजनीतिक अर्थशास्त्र से ग्रहण किया कि आर्थिक विनिमय तभी समतामूलक हो सकता है जब दोनों पक्षों द्वारा लगाया गया श्रम-मूल्य बराबर हो। लेकिन, जब एक पक्ष श्रम ख़रीदने वाला और दूसरा श्रम बेचने वाला होता है तो श्रम ख़रीदने वाला हमेशा ही किसी भी विनिमय में बहुत ज़्यादा लाभ हासिल कर लेता है। इसी लाभ के दम पर उसके पास उत्तरोत्तर पूँजी जमा होती चली जाती है। इस पूँजी संचय के गहन और दूरगामी आर्थिक-सामाजिक फलितार्थ होते हैं और इसके गर्भ से प्रभुत्व व अधीनस्थता की सामजिक संरचनाएँ जन्म लेती हैं। दरअसल, मार्क्स जिस उलझन का हल सुझा रहे थे, वह कभी अरस्तू ने अपनी निकोमैकियन इथिक्स में उठायी थी। अरस्तू के इस विमर्श में आधुनिक राजनीतिक अर्थशास्त्र के बीज निहित थे। अरस्तू का कहना था कि दो लोग जब किन्हीं दो चीज़ों का आपस में विनिमय करते हैं तो उनमें से एक बेहतर और एक कमतर होती ही है। ऐसे में दोनों में से किसी एक पक्ष को दूसरे के मुकाबले अधिक लाभ होना लाज़मी है। उनका सवाल था कि दोनों के लाभों को बराबर कैसे किया जाए, क्योंकि लाभों की असमता एक विषम समाज को जन्म दे सकती है। अरस्तू के पास इस समस्या का हल नहीं था। मार्क्स का युग तो राष्ट्रों के विकास का युग था, इसलिए उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि पूँजीवाद बड़े पैमाने पर सम्पत्ति जमा करता चला जाता है और एक मुकाम पर पहुँच कर राष्ट्र के विकास में मुख्य भूमिका निभाता है। लेनिन ने मार्क्स के इसी विचार का विस्तार करते हुए दिखाया कि किस तरह उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के ज़रिये पूँजीवाद अपना अंतर्राष्ट्रीय विस्तार करता है।
मार्क्स और लेनिन के विमर्श का लाभ उठा कर अर्थशास्त्री कई तरह की रैडिकल धारणाओं का प्रतिपादन कर पाये। उन्होंने योजनापूर्वक राजनीति और अर्थशास्त्र को आपस में मिला दिया, पूँजीवाद की प्रकृति और राजनीतिक दलों के इरादों की जाँच की। इसी सिलसिले में सार्वजनिक उत्पादन, उस पर पड़ने वाले बाहरी प्रभावों और इज़ारेदारियों का विश्लेषण किया गया। अलग-अलग सरकारों द्वारा संसाधनों का बँटवारा करने की प्रक्रिया की भी व्याख्या की गयी। लोकोपकारी राज्य की अवधारणा के सूत्रीकरण में राजनीतिक अर्थशास्त्र के वामपंथी पहलुओं की प्रमुख भूमिका रही। पचास के दशक में रिचर्ड एम. टिटमस ने युरोप की ज़मीन पर लोकोपकारी राज्य को तीन मॉडलों में बाँट कर देखा। उन्होंने बताया कि एंग्लो-सेक्सन देश लोक उपकार की राजनीति केवल तभी अपनाते हैं जब बाज़ार विफल हो जाता है। यह आंशिक किस्म का लोक उपकार है। जर्मनी और नीदरलैण्ड जैसे देशों में लोक उपकार की राजनीति अर्थशास्त्र में औद्योगिक उपलब्धियों को बेहतर बनाने के लिए मिश्रित की जाती है। बीसवीं सदी के मध्य में हुए नियो-क्लासिकल अर्थशास्त्र ने राजनीतिक अर्थशास्त्र के विपरीत राजनीति के प्रभाव से स्वतंत्र आर्थिक विज्ञान की वकालत की। इस प्रवृत्ति के बोलबाले के दौर में सम्भवतः जोसेफ़ शुमपीटर की रचना कैपिटलिज़म, सोशलज़िम ऐंड डेमॉक्रैसी एक ऐसी कृति थी जिसमें अंतर्निहित था कि अर्थशास्त्र का अध्ययन राजनीति के अध्ययन से जुड़ा है। बाज़ार की विफलता की रोशनी में राजनीतिक अर्थशास्त्र ने पिछले कुछ दशकों में अपनी दावेदारी फिर से पेश की है। इसका एक बड़ा प्रमाण उस समय मिला जब दिसम्बर, 2007 में नोबेल पुरस्कार लेते हुए तीन अर्थशास्त्रियों (लियोनिड हुरविज़, एरिक मैस्किन और रोज़र मेयरसन) ने अलग-अलग भाषण दिये। तीनों ने अपने-अपने तरीकों से राजनीतिक संस्थाओं और आर्थिक संस्थाओं के एकीकरण की ज़रूरत को रेखांकित ही नहीं किया बल्कि यह भी कहा कि यह एकीकरण आम तौर पर हो चुका है। उनका कहना था कि आख़िरकार दोनों ही किस्म की संस्थाएँ अपने-अपने किस्म के तंत्रों की नुमाइंदगी करती हैं, उनके बीच परस्पर निर्भरता है और दोनों ही परिणाम हासिल करने में अनिवार्य भूमिका निभाती हैं। मेयरसन का कहना था कि अर्थशास्त्र को प्रमुखता देनी आवश्यक है, पर यह उसे राजनीति से काट कर नहीं दी जा सकती। प्रत्येक सामाजिक संस्था विभिन्न तरह के प्रोत्साहनों को आर्थिक और राजनीतिक पहलुओं से मिला कर खड़ी की जाती है। बेहतर सामाजिक संस्था वह होती है जिसमें यह मिश्रण बुद्धिमानीपूर्वक किया जाता है। तभी वह ग़लत निर्णयों और विभिन्न बाधाओं से पार पाने के लिए सक्रिय और समन्वित प्रयास कर पाती है।
इसमें कोई शक नहीं कि अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र के अलगाव ने ज्ञान के क्षेत्र को विकसित करने में अहम योगदान किया है। विद्वानों की कई पीढ़ियों ने एक- दूसरे से स्वतंत्र और स्वायत्त अध्ययन करके न जाने कितने सिद्धांतों और विचारों का प्रतिपादन किया है। इस प्रक्रिया में नये और बेहतर विश्लेषणात्मक परिप्रेक्ष्यों में विषय को पुनः परिभाषित किया गया है। लेकिन, व्यावहारिक दृष्टिकोण से यह अलगाव कभी विशुद्ध आर्थिकी या विशुद्ध राजनीतिक- विज्ञान के विकास का रास्ता नहीं खोल पाया। अब एक बार फिर दोनों के एकीकरण की चर्चा होने लगी है, हालाँकि दोनों ही अनुशासनों के विद्वान पहले से ही परस्परव्यापी क्षेत्रों में कार्यरत हैं। यहाँ तक कि नवउदारतावादी नीतियों में भी यह निर्भरता बढ़ी है।
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