प्रसिद्ध कट्टर सिक्ख नेता : मास्टर तारा सिंह, - Study Search Point

निरंतर कर्म और प्रयास ही सफलता की कुंजी हैं।

प्रसिद्ध कट्टर सिक्ख नेता : मास्टर तारा सिंह,

Share This
मास्टर तारा सिंह (Tara Singh ; 24 जून1885, रावलपिण्डी, पंजाब  22 नवम्बर1967चण्डीगढ़) प्रसिद्ध कट्टर सिक्ख नेता थे, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध के समय सिक्खों को सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित किया। इसी के परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने 1919 ई. के 'इण्डिया एक्ट' में मुस्लिमों की भांति सिक्खों को भी पृथक साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया था।
तारा सिंह एक सिक्ख नेता होने के साथ-साथ पत्रकार और लेखक भी थे। इन्होंनेराष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' का भी समर्थन किया था। तारा सिंह ने 17 वर्ष की उम्र में सिक्ख धर्म की दीक्षा ली और अपना पैतृक निवास छोड़कर गुरुद्वारे में रहने लगे। उनकी शिक्षा रावलपिण्डी और अमृतसर में हुई थी।लाहौर से तारा सिंह ने अध्यापन कार्य का प्रशिक्षण लिया और लायलपुर के हाईस्कूल में 15 रुपये मासिक वेतन पर प्रधान अध्यापक का काम करने लगे। यद्यपि बाद के जीवन में उनका अध्यापन कार्य से कोई संबंध नहीं रहा था, लेकिन नाम के साथ 'मास्टर' शब्द सदा के लिए जुड़ गया। इन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध के समय राजनीति में प्रवेश किया। मास्टर तारा सिंह ने सिक्खों को अधिक-से-अधिक संख्या में सेना में भर्ती होने की प्रेरणा दी। इसके फलस्वरूप युद्ध की समाप्ति पर ब्रिटिश सरकार ने 1919 ई. के 'इण्डिया एक्ट' में मुसलमानों की भांति सिक्खों को भी पृथक सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया। इसके बाद तारा सिंह गुरुद्वारों के प्रबंध के ओर मुड़े। वर्ष 1928 ई. की नेहरू कमेटी का तारा सिंह ने विरोध किया, पर कांग्रेस के पूर्ण स्वतंत्रता के प्रस्ताव के वे समर्थक थे। महात्मा गाँधी के 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन का भी उन्होंने समर्थन किया। 1932 के ब्रिटिश सरकार के 'साम्प्रदायिक निर्णय' के वे विरोधी थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय क्रिप्स प्रस्ताव का भी उन्होंने विरोध किया। युद्ध के बाद शिमला सम्मेलन में मास्टर तारा सिंह का कहना था कि- "भारत को अविभाज्य रहना चाहिए। परंतु यदि पाकिस्तान की मांग स्वीकार की जाती है तो सिक्खों का भी एक स्वतंत्र राज्य बनाया जाए। स्वतंत्रा के बाद तारा सिंह ने पृथक पंजाबी भाषी राज्य बनाने के लिए आंदोलन किया। 1952 के प्रथम निर्वाचन के समय वे कांग्रेस कार्य समिति से पंजाबी भाषी प्रदेश के निर्माण और पंजाबी विश्वविद्यालय की स्थापना का निर्णय कराने में सफल हुए। बाद में इसके लिए उन्होंने 15 अगस्त1961 से आमरण अनशन किया, जो 43 दिन के बाद टूटा। धीरे-धीरे उनके नेतृत्व का प्रभाव घटने लगा और पंजाबी प्रदेश उनके निधन के बाद ही बन सका।
मास्टर तारासिंह ने विभिन्न आंदोलनों के सिलसिले में अनेक बार जेलयात्राएँ की, पर दिल्ली में आयोजित एक विशाल प्रदर्शन का नेतृत्व करने से पूर्व सरदार प्रतापसिंह द्वारा बंदी बनाया जाना उनके नेतृत्व के ह्रास का कारण बना। उन्होंने अपने स्थान पर प्रदर्शन का नेतृत्व करने के लिए अपने अन्यतम सहयोग संत फतेहसिंह को मनोनीत किया। संत ने बाद में मास्टर जी की अनुपस्थिति में ही पंजाबी प्रदेश के लिए आमरण्य अनशन प्रारंभ कर दिया, जिसे समाप्त करने के लिए मास्टर तारासिंह ने कारावास से मुक्ति के पश्चात् संत फतेहसिंह को विवश किया और प्रतिक्रियास्वरूप सिक्ख समुदाय के कोपभाजन बने। अपनी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए उन्होंने स्वयं आमरण अनशन प्रारंभ कर दिया, जिसे उन्होंने केंद्रीय सरकार के आश्वासन पर ही त्यागा। सरकार ने वार्तार्थ मास्टर जी के स्थान पर संत को आमंत्रित किया। घटनाक्रमों ने अब तक मास्टर जी के नेतृत्व को प्रभावहीन और संत को विख्यात बना दिया था। वे हर मोड़ पर उलझते गए और संत जी की लोकप्रियता उसी अनुपात में बढ़ती गई। सरदार प्रतापसिंह के राजनीतिक कौशल ने सिक्ख राजनीतिक शक्ति के अक्षय स्रोत शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंध कमेटी से भी मास्टर को निष्कासित करने में संत को सफल बनाया। मास्टर जी संत जी से पराजित हुए। उनके 45 वर्ष पुराने नेतृत्व का अंत हो गया; उनकी राजनीतिक मृत्यु हो गई। सन् 1962 में उनके दल को विधानसभा में मात्र तीन स्थान प्राप्त हुए। यद्यपि 1966 में हुए पंजाब विभाजन की पूर्वपीठिका तैयार करने का संपूर्ण श्रेय मास्टर तारासिंह को ही है, तथापि पंजाबी सूबा बना मास्टर तारा सिंह के यश:शरीर के शव पर। विजय की वरमाला संत जी के गले में पड़ी। पर उस वयोवृद्ध सिक्खनेता ने आत्मसमर्पण करना सीखा नहीं था। वे अंत तक मैदान में डटे रहे। वे जीवनपर्यंत विवाद के केंद्र बने रहे, लेकिन जड़ कभी नहीं हुए।
22 नवम्बर सन् 1967 को 83 वर्ष की वय में देश के राजनीतिक जीवन का यह इंद्रधनुषी व्यक्तित्व समाप्त हो गया।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Pages