बौद्ध महाकवि तथा दार्शनिक : अश्वघोष, - Study Search Point

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बौद्ध महाकवि तथा दार्शनिक : अश्वघोष,

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अश्वघोष, बौद्ध महाकवि तथा दार्शनिक थे। बुद्धचरितम् इनकी प्रसिद्ध रचना है। कुषाणनरेश कनिष्क के समकालीन महाकवि अश्वघोष का समय ईसवी प्रथम शताब्दी का अंत और द्वितीय का आरंभ है। उनका जन्म साकेत (अयोध्या) में हुआ था। उनकी माता का नाम सुर्णाक्षी था। चीनी परंपरा के अनुसार महाराज कनिष्क पाटलिपुत्र के अधिपति को परास्त कर वहाँ से अश्वघोष को अपनी राजधानी पुरुषपुर (वर्तमान पेशावर) ले गए थे। कनिष्क द्वारा बुलाई गई चतुर्थ बौद्ध संगीति की अध्यक्षता का गौरव एक परंपरा महास्थविर पार्श्व को और दूसरी परंपरा महावादी अश्वघोष को प्रदान करती है। ये सर्वास्तिवादी बौद्ध आचार्य थे जिसका संकेत सर्वास्तिवादी "विभाषा" की रचना में प्रायोजक होने से भी हमें मिलता है। 
विण्टरनित्स के अनुसार कनिष्क 125 ई. में सिंहासन पर आसीन हुआ था। तदनुसार अश्वघोष का स्थितिकाल भी द्वितीय शती ई. माना जा सकता है। परन्तु अधिकांश विद्वानों की मान्यता है कि कनिष्क शक संवत का प्रवर्तक है। यह संवत्सर 78 ई. से प्रारम्भ हुआ था। इसी आधार पर कीथ अश्वघोष का समय 100 ई. के लगभग मानते हैं। कनिष्क का राज्यकाल 78 ई. से 125 ई. तक मान लेने पर महाकवि अश्वघोष का स्थितिकाल भी प्रथम शताब्दी माना जा सकता है।बौद्ध धर्म के ग्रन्थों में भी ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनके आधार पर अश्वघोष, सम्राट कनिष्क के समकालीन सिद्ध होते हैं। चीनी परम्परा के अनुसार सम्राट कनिष्क के द्वारा काश्मीर के कुण्डलव में आयोजित अनेक अन्त:साक्ष्य भी अश्वघोष को कनिष्क का समकालीन सिद्ध करते हैं। अश्वघोष कृत 'बुद्धचरित' का चीनी अनुवाद ईसा की पांचवीं शताब्दी का उपलब्ध होता है। इससे विदित होता है कि भारत में पर्याप्त रूपेण प्रचारित होने के बाद ही इसका चीनी अनुवाद हुआ होगा। सम्राट अशोक का राज्यकाल ई.पू. 269 से 232 ई. पू. है, यह तथ्य पूर्णत: इतिहास-सिद्ध है। 'बुद्धचरित' के अन्त में अशोक का उल्लेख होने के कारण यह निश्चित होता है कि अश्वघोष अशोक के परवर्ती थे। चीनी परम्परा अश्वघोष को कनिष्क का दीक्षा-गुरु मानने के पक्ष में है। अश्वघोष कृत 'अभिधर्मपिटक' की विभाषा नाम्नी एक व्याख्या भी प्राप्त होती है जो कनिष्क के ही समय में रची गयी थी। अश्वघोष रचित 'शारिपुत्रप्रकरण' के आधार पर प्रो0 ल्यूडर्स ने इसका रचनाकाल हुविष्क का शासनकाल स्वीकार किया है। हुविष्क के राज्यकाल में अश्वघोष की विद्यमानता ऐतिहासिक दृष्टि से अप्रमाणिक है। इनका राज्यारोहणकाल कनिष्क की मृत्यु के बीस वर्ष के बाद है। हुविष्क के प्राप्त सिक्कों पर कहीं भी बुद्ध का नाम नहीं मिलता, किन्तु कनिष्क के सिक्कों पर बुद्ध का नाम अंकित है। कनिष्क बौद्धधर्मावलम्बी थे और हुविष्क ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। अत: अश्वघोष का उनके दरबार में विद्यमान होना सिद्ध नहीं होता। कालिदास तथा अश्वघोष की रचनाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात यह निष्कर्ष निकलता है कि अश्वघोष कालिदास के परवर्ती थे। कालिदास की तिथि प्रथम शताब्दी ई. पू. स्वीकार करने से यह मानना पड़ता है कि दोनों रचनाओं में जो साम्य परिलक्षित होता है उससे कालिदास का ऋण अश्वघोष पर सिद्ध होता है। अश्वघोष के ऊपर कालिदास का प्रभूत प्रभाव पड़ा था, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि कालिदास ने कुमारसंभव और रघुवंश में जिन श्लोंकों को लिखा, उन्हीं का अनुकरण अश्वघोष ने बुद्धचरित में किया है। 
इनके नाम से प्रख्यात अनेक ग्रंथ हैं, परंतु प्रामाणिक रूप से अश्वघोष की साहित्यिक कृतियाँ केवल चार हैं :

(1 ) बुद्धचरितम्

(2 ) सौन्दरानंदकाव्यम्

(3 ) गंडीस्तोत्रगाथा

(4 ) शारिपुत्रप्रकरणम्

सूत्रालंकारशास्त्रम् के रचयिता संभवत: ये नहीं हैं।
चीनी तथा तिब्बती अनुवादों बुद्धचरित पूरे 28 सर्गों में उपलब्ध है, परंतु मूल संस्कृत में केवल 14 सर्गों में ही मिलता है। इसमें तथागत का जीवनचरित और उपदेश बड़ी ही रोचक वैदर्भी रीति में नाना छंदों में निबद्ध किया गया है। सौंदरानंद (18 सर्ग) सिद्धार्थ के भ्राता नंद को उद्दाम काम से हटाकर संघ में दीक्षित होने का भव्य वर्णन करता है। काव्यदृष्टि से बुद्धचरित की अपेक्षा यह कहीं अधिक स्निग्ध तथा सुंदर है। गंडोस्तोत्रगाथा गीतकाव्य की सुषमा से मंडित है। शरिपुत्रप्रकरण अधूरा होने पर भी महनीय रूपक का रम्य प्रतिनिधि है। अनेक आलोचक अश्वघोष कोकालिदास की काव्यकला का प्रेरक मानते हैं। अश्वघोष बौद्ध-दर्शन-साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित थे। इनकी गणना उन कलाकारों की श्रेणी में की जाती है जो कला की यवनिका के पीछे छिपकर अपनी मान्यताओं को प्रकाशित करते हैं। इन्होंने कविता के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का विवेचन कर जनसाधारण के लिए सरलता तथा सरलतापूर्वक सुलभ एवम् आकर्षक बनाने का सफल प्रयास किया है। इनकी समस्त रचनाओं में बौद्धधर्म के सिद्धान्त प्रतिबिम्बित हुए हैं। भगवान बुद्ध के प्रति अपरिमित आस्था तथा अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता महाकवि अश्वघोष के व्यक्तित्व की अन्यतम विशेषता है। अश्वघोष कवि होने के साथ ही संगीत मर्मज्ञ भी थे। उन्होंने अपने विचारों को प्रभावशाली बनाने के लिए काव्य के अतिरिक्त गीतात्मकता को प्रमुख साधन बनाया। बहुमुखी प्रतिभा के धनी तथा संस्कृत के बहुश्रुत विद्वान महाकवि अश्वघोष में शास्त्र और काव्य-सर्जन की समान प्रतिभा थी। उनके व्यक्तित्व में कवित्व तथा आचार्यत्व का मणिकांचन संयोग था। उन्होंने सज्रसूची, महायानश्रद्धोत्पादशास्त्र तथा सूत्रालंकार अथवा कल्पनामण्डितिका नामक धर्म और दर्शन विषयों के अतिरिक्त शारिपुत्रप्रकरण नामक एक रूपक तथा बुद्धचरित तथा सौन्दरनन्द नामक दो महाकाव्यों की भी रचना की। इन रचनाओं में बुद्धचरित महाकवि अश्वघोष का कीर्तिस्तम्भ है। इसमें कवि ने तथागत के सात्त्विक जीवन का सरल और सरस वर्णन किया है। 'सौन्दरनन्द' अश्वघोषप्रणीत द्वितीय महाकाव्य है। इसमें भगवान बुद्ध के अनुज नन्द का चरित वर्णित है। इन रचनाओं के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का विवेचन कर उन्हें जनसाधारण के लिए सुलभ कराना ही महाकवि अश्वघोष का मुख्य उद्देश्य था। इनकी समस्त रचनाओं में बौद्ध धर्म के सिद्धान्त सुस्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित हैं।

2 टिप्‍पणियां:

  1. कालिदास का काल पाचवी शताब्दी है, तो फिर यहाँ
    गलत क्यू लिखा.क्या इस से कालिदास बडा लेखक यांना जा सकता है!ल्युडर्स ने कसा है,
    As a damatist Ashwaghosha was a earthy predecessor of Kalidasa. So one should not change the history.... Unnecessarily.

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  2. कालिदास का काल पाचवी शताब्दी है, तो फिर यहाँ
    गलत क्यू लिखा.क्या इस से कालिदास बडा लेखक यांना जा सकता है!ल्युडर्स ने कसा है,
    As a damatist Ashwaghosha was a earthy predecessor of Kalidasa. So one should not change the history.... Unnecessarily.

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