स्वदेश प्रेम, प्राकृतिक सौंदर्य तथा समाजसुधार की भावनाओं के कवि श्रीधर पाठक, - Study Search Point

निरंतर कर्म और प्रयास ही सफलता की कुंजी हैं।

स्वदेश प्रेम, प्राकृतिक सौंदर्य तथा समाजसुधार की भावनाओं के कवि श्रीधर पाठक,

Share This
श्रीधर पाठक (Shridhar Pathak, जन्म- 11 जनवरी1860आगराउत्तर प्रदेश; मृत्यु- 13 सितम्बर1928भारत के प्रसिद्ध कवियों में से एक थे। वे स्वदेश प्रेम, प्राकृतिक सौंदर्य तथा समाजसुधार की भावनाओं के कवि थे। वे 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' के पाँचवें अधिवेशन (1915लखनऊ) के सभापति हुए थे। उन्हें 'कविभूषण' की उपाधि से सम्मानित किया गया था। हिन्दीसंस्कृत और अंग्रेज़ी पर श्रीधर पाठक का समान अधिकार था।
श्रीधर पाठक का जन्म 11 जनवरी, सन 1860 में जौंधरी नामक गाँव, आगराउत्तर प्रदेश में हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित लीलाधर था। श्रीधर पाठक 'सारस्वत' ब्राह्मणों के उस परिवार में से थे, जो 8वीं शती में पंजाब के सिरसा से आकर आगरा ज़िले के जौंधरी गाँव में बस गया था। एक सुसंस्कृत परिवार में उत्पन्न होने के कारण आरंभ से ही इनकी रूचि विद्यार्जन में थी। छोटी अवस्था में ही श्रीधर पाठक ने घर पर संस्कृत और फ़ारसी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। तदुपरांत औपचारिक रूप से विद्यालयी शिक्षा लेते हुए वे हिन्दी प्रवेशिका (1875) और 'अंग्रेज़ी मिडिल' (1879) परीक्षाओं में सर्वप्रथम रहे। फिर 'ऐंट्रेंस परीक्षा' (1880-81) में भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। उन दिनों भारत में ऐंट्रेंस तक की शिक्षा पर्याप्त उच्च मानी जाती थी।

काव्य लेखन - 

श्रीधर पाठक ने ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों में अच्छी कविता की हैं। उनकी ब्रजभाषा सहज और निराडम्बर है, परंपरागत रूढ़ शब्दावली का प्रयोग उन्होंने प्रायः नहीं किया है। खड़ी बोली में काव्य रचना कर श्रीधर पाठक ने गद्य और पद्य की भाषाओं में एकता स्थापित करने का एतिहासिक कार्य किया। खड़ी बोली के वे प्रथम समर्थ कवि भी कहे जा सकते हैं। यद्यपि इनकी खड़ी बोली में कहीं-कहीं ब्रजभाषा के क्रियापद भी प्रयुक्त है, किन्तु यह क्रम महत्वपूर्ण नहीं है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा 'सरस्वती' का सम्पादन संभालने से पूर्व ही उन्होंने खड़ी बोली में कविता लिखकर अपनी स्वच्छन्द वृत्ति का परिचय दिया। देश-प्रेम, समाज सुधार तथा प्रकृति-चित्रण उनकी कविता के मुख्य विषय थे। उन्होने बड़े मनोयोग से देश का गौरव गान किया है, किन्तु देश भक्ति के साथ उनमें भारतेंदु कालीन कवियों के समान राजभक्ति भी मिलती है।
एक ओर श्रीधर पाठक ने 'भारतोत्थान', 'भारत प्रशंसा' आदि देशभक्ति पूर्ण कवितायें लिखी हैं तो दूसरी ओर 'जार्ज वन्दना' जैसी कविताओं में राजभक्ति का भी प्रदर्शन किया है। समाज सुधार की ओर भी इनकी दृष्टि बराबर रही है। 'बाल विधवा' में उन्होंने विधवाओं की व्यथा का कारुणिक वर्णन किया है। परन्तु उनको सर्वाधिक सफलता प्रकृति-चित्रण में प्राप्त हुई है। तत्कालीन कवियों में श्रीधर पाठक ने सबसे अधिक मात्रा में प्रकृति-चित्रण किया है। परिणाम की दृष्टि से ही नहीं, गुण की दृष्टि से भी वे सर्वश्रेष्ठ हैं। श्रीधर पाठक ने रूढ़ी का परित्याग कर प्रकृति का स्वतंत्र रूप में मनोहारी चित्रण किया है। उन्होंने अंग्रेज़ी तथा संस्कृत की पुस्तकों के पद्यानुवाद भी किये।

रचनाएँ - 

श्रीधर पाठक एक कुशल अनुवादक थे। कालिदास कृत 'ऋतुसंहार' और गोल्डस्मिथ कृत 'हरमिट', 'टेजटेंड विलेज' तथा 'प ट्रैवलर' का वे बहुत पहले ही 'एकांतवासी योग', ऊजड ग्राम और श्रांत पथिक शीर्षक से काव्यानुवाद कर चुके थे। उनकी कुछ मौलिक कृतियों निम्न प्रकार हैं[2]-
  1. 'वनाश्टक'
  2. 'काश्मीर सुषमा' (1904)
  3. 'देहरादून' (1915)
  4. 'भारत गीत' (1928)
  5. 'गोपिका गीत'
  6. 'मनोविनोद'
  7. 'जगत सच्चाई-सार'

Pages